गीता रहस्य -तिलक पृ. 561

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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परिशिष्‍ट-प्रकरण
भाग 5–वर्तमान गीता का फल ।

इस पुस्तक [1] में कहा है, [2]कि उसमें वर्णित हेरेल्कीज ही श्रीकृष्ण है और मेगस्थनीज के समय शौरसेनी लोग, जो मथुरा के निवासी थे, उसी की पूजा किया करते थे। उसमें यह भी लिखा है, कि हेरेल्कीज अपने मूलपुरुष डायोनिसस से पन्द्रहवाँ था। इसी प्रकार महाभारत[3] में भी कहा है, कि श्रीकृष्ण दक्षप्रजापति से पन्द्रहवें पुरुष हैं। और, मेगस्थनीज ने कर्णप्रावरण, एकपाद, ललाटाक्ष आदि अद्भुत लोगों का[4], तथा सोने को ऊपर निकालने वाली चींटियों (पिपीलिकाओं) का[5], जो वर्णन किया है, वह भी महाभारत[6] ही में पाया जाता है। इन बातों से और अन्य बातों से प्रगट हो जाता है, कि मेगस्थनीज के समय केवल महाभारत ग्रंथ ही नहीं प्रचलित था, किंतु श्रीकृष्ण-चरित्र तथा श्रीकृष्णपूजा का भी प्रचार हो गया था। यदि इस बात पर ध्यान दिया जाय, कि उपर्युक्त प्रमाण परस्पर-सापेक्ष अर्थात एक दूसरे पर अवलम्बित नहीं है, किंतु वे स्वतंत्र हैं; तो यह बात निस्सन्देह प्रतीत होगी, कि वर्तमान महाभारत शक के लगभग पाँच सौ वर्ष पहले अस्तित्व में जरूर था।

इसके बाद कदाचित किसी ने उसमें कुछ नये श्लोक मिला दिये होंगे अथवा उसमें से कुछ निकाल भी ड़ाले होगें। परंतु इस समय कुछ विशिष्ट श्लोकों के विषय में कोई प्रश्न नहीं है–प्रश्न तो समूचे ग्रंथ के ही विषय में है; और यह बात सिद्ध है, कि यह समस्त ग्रंथ शक-काल के, कम से कम पाँच शतक पहले ही रचा गया है। इस प्रकरण के आरम्भ ही में हमने यह सिद्ध कर दिया है, कि गीता समस्त महाभारत ग्रंथ का ही भाग है-वह कुछ उसमें पीछे नहीं मिलाई गई है। अतएव गीता का भी काल वही मानना पड़ता है, जो कि महाभारत का है। संभव है, कि मूल गीता इसके पहले की हो; क्योंकि जैसा इसी प्रकरण के चौथे भाग में बतलाया गया है, उसकी परम्परा बहुत प्राचीन समय तक हटानी पड़ती है। परंतु, चाहे जो कुछ कहा जाय, यह निर्विवाद सिद्ध है कि उसका काल महाभारत के बाद का नहीं माना जा सकता। यह नहीं, कि यह बात केवल उपर्युक्त प्रमाणों ही से सिद्ध होती है; किंतु इसके विषय में स्वतंत्र प्रमाण भी देख पड़ते हैं। अब आगे उन स्वतंत्र प्रमाणों का ही वर्णन किया जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पृष्ठ् 200-205
  2. See M’Crindle’s Ancient India-Megasthenes and Arrian pp. 200-205. मेगस्थनीज का यह कथन एक वर्तमान शोध के कारण विचित्रतांपूर्वक दृढ़ किया गया है। बंबई सरकार के Archaeological Department की 1914 ईसवी की Progress Report हाल ही में प्रकाशित हुई है। उसमें एक शिलालेख है, जो ग्वालियर रियासत के भेलसा शहर के पास बेसनगर गाँव में खांबबाबा नामक एक गरूडध्वज स्तम्भ पर मिला है। इस लेख में यह कहा है, कि हेलिओड़ोरस नामक एक हिन्दू बने हुए यवन अर्थात ग्रीक ने इस खंभ के सामने वासुदेव का मन्दिर बनवाया और यह यवन वहाँ के भगभद्र नामक राजा के दरबार में तक्षशिला के एँटिआल्किड़स नामक ग्रीक राजा के एलची की हैसियत से रहता था। एँटिआल्किड़स के सिक्कों से अब यह सिद्ध किया गया है, कि वह ईसा के पहले 140 वें वर्ष में राज्य करता था। इससे यह बात पूर्णतया सिद्ध हो जाती है, कि उस समय वासुदेवभक्ति प्रचलित थी; केवल इतना ही नहीं किंतु यवन लोग भी वासुदेव के मन्दिर बनवाने लगे थे। यह पहले ही बतला चुके है, कि मेगस्थनीज ही को नहीं किंतु पाणिनि को भी वासुदेव-भक्ति मालूम थी।
  3. अनु. 147. 25-33
  4. पृष्ठ. 74
  5. पृ. 94
  6. सभा, 51 और 52

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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