1.9 नाना शस्त्रप्रहरणा0 श्लोकार्ध;
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भीष्मपर्व (51.4); गीता के स्दृश ही दुर्योधन द्रोणाचार्य अपनी सेना का वर्णन कर रहा है।
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1.10 अपर्याप्तं सं. पूरा श्लोक
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भीष्म. 51.6
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12-19 तक आठ श्लोक।
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भीष्म. 51. 22-29, कुछ भेद रहते हुए शेष गीता के श्लोकों के समान ही हैं।
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1.45 अहो बत महत्पापं 0 श्लोक।
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द्रोण. 197.50 कुछ शब्दभेद है, शेष गीता के श्लोक के समान।
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2.19. उभौ सौ न विजानीत:. श्लोकार्थ।
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शान्ति. 224.14 कुछ पाठभेद होकर बलि-वासव-संवाद और कठोपनिषद में ( 2.18.) है।
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2.28 अव्यक्तादीनि भूतानि. श्लोक।
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स्त्री. 2. 6; 9. 11; ‘ अव्यक्त ’ के बदले ‘अभाव ’ है, शेष सब समान है।
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2.31 धर्म्र्याद्धि युद्धाच्छ्रेयो. श्लोकार्ध।
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भीष्म. 124. 36. भीष्म कर्ण को यही बतला रहे हैं।
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2.32 यद्दच्छया 0 श्लोक।
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कर्ण. 57. 2 ‘ पार्थ ’ के बदले ‘ कर्ण ’ पद रख कर दुर्योधन कर्ण से कह रहा है।
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2.46 यावान् अर्थ उदपाने. श्लोक।
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उद्योग. 45. 26 सनात्सुजातीय प्रकरण में कुछ शब्दभेद से पाया जाता है।
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2.59 विषया विनिवर्तन्ते. श्लोक।
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शान्ति. 204. 16 मनु-ब्रहस्पति-संवाद में अक्षरश: मिलता है।
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2.67 इंद्रियाणां हि चरतां. श्लोक।
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वन. 210. 26 ब्राह्मण-व्याघसंवाद में कुछ पाठभेद से आया है और पहले रथ का रूपक भी दिया गया है।
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2.70 आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं. श्लोक।
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शान्ति, 250. 9 शुकानु-प्रश्न में ज्यों का त्यों आया है।
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3.42 इंद्रियाणि पराणयाहु:. श्लोक।
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शान्ति. 245.3 और 247. 2 का कुछ पाठभेद से शुकानु-प्रश्न में दो बार आया है। परन्तु इस श्लोक का मूल स्थान कठोपनिषद में है ( कठ. 3.10 )।
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4.7 यदा यदा हि धर्मस्य. श्लोक।
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वन. 189. 27. मार्कडेय प्रश्न में ज्यों का त्यों है।
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4.31 नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य. श्लोकार्ध।
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शान्ति. 267. 40 गोकापिलीयाख्यान में पाया जाता है और सब प्रकरण यश यज्ञ विषयक ही है।
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4.40 नायं लोकोऽस्ति न परो. श्लोकार्थ।
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वन. 199. 110. मार्कडेय-समस्यापर्व में शब्दश: मिलता है।
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5.5 यत्सांख्यै: प्राप्यते स्थानं. श्लोक।
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शान्ति. 305. 19 और 316. 4 इन दोनों स्थानों में कुछ पाठभेद से वसिष्ठ-कराल और याज्ञवल्क्य -जनक के संवाद में पाया जाता है।
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5.18 विद्याविनयसंपन्ने. श्लोक।
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शान्ति. 238. 19 शुकानुप्रश्न में अक्षरश: मिलता है।
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6. 5. आत्मैव ह्यात्मनो बंधु:. श्लोकार्ध और आगामी श्लोक का अर्थ।
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उद्योग. 33. 63, 64. विदुरनीति में ठीक ठीक मिलता है।
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6. 29 सर्वभूतस्थमात्मानं. श्लोकार्ध।
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शान्ति. 238. 21. शुकानुप्रश्न, मनु- स्मृति ( 12. 91 ), ईशावास्योपनिषद ( 6 ) और कैवल्योपनि – पद ( 1. 10 ) में तो ज्यों का त्यों मिलता है।
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6. 44 जिज्ञासुरपि योगस्य 0 श्लोकार्ध।
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शान्ति. 235.7 शुकानुप्रश्न में कुछ पाठ भेद करके रखा गया है।
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8.17 सहस्त्रयुगपर्यन्तं. यह श्लोक पहले युग का अर्थ न बतला कर गीता में दिया
गया है।
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शान्ति. 231. 31 शुकानुप्रश्न में अक्षरश: मिलता है और युग का अर्थ बतलाने-वाला कोष्टक भी पहले दिया गया है। मनुस्मृति में भी कुछ पाठान्तर से मिलता है (मनु. 1. 73)।
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8. 20 य: स सर्वेषु भूतेषु. श्लोकार्ध।
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शान्ति. 339. 23 नारायणि वर्ग में कुछ पाठान्तर होकर दो बार आया है।
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9. 32 स्त्रियो वैश्यास्तथा. यह पूरा श्लोक और आगामी श्लोक का पूर्वार्ध।
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अश्व. 19. 61 और 62. अनुगीता में कुछ पाठान्तर के साथ ये श्लोक हैं ।
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13. 13 सर्वत: पाणिपादं. श्लोक।
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शान्ति. 238. 29 अश्व 19. 49; शुकानुप्रश्न, अनुगीता तथा अन्यत्र भी यह अक्षरश: मिलता है। इस श्लोक का मूलस्थान श्वेताश्वतरोपनिषद ( 3. 16 ) है।
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13. 30 यदा भूतपृथग्भावं. श्लोक।
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शान्ति. 17. 23 युधिष्ठिर ने अर्जुन से यही शब्द कहे हैं।
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14. 18 ऊर्ध्वै गच्छन्ति सत्त्वस्था. श्लोक।
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अश्व. 39. 10 अनुगीता के गुरु-शिष्य संवाद में अक्षरश: मिलता है।
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16. 21 त्रिविधं नरकस्येदं. श्लोक।
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उद्योग. 32. 70 विदुरनीति में अक्षरश: मिलता है।
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17. 3 श्रद्धामयोऽयं पुरुष:. श्लोकार्ध।
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शान्ति, 263. 17 तुलाधार-जाजलि-संवाद के श्रद्धाप्रकरण में मिलता है।
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18. 14 अधिष्ठानं तथा कर्त्ता. श्लोक।
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शान्ति. 347. 87 नारायणीय-धर्म में अक्षरश: मिलता है।
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