गीता रहस्य -तिलक पृ. 515

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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परिशिष्‍ट-प्रकरण
भाग 1-गीता और महाभारत।

नीचे दिये गये श्लोक और श्लोकार्ध, गीता और महाभारत (कलकत्‍ताकी प्रति) में, शब्दश; अथवा एक-आध शब्द की भिन्नता होकर, ज्यों के त्यों मिलते हैं-

गीता महाभारत
1.9 नाना शस्‍त्रप्रहरणा0 श्लोकार्ध; भीष्मपर्व (51.4); गीता के स्दृश ही दुर्योधन द्रोणाचार्य अपनी सेना का वर्णन कर रहा है।
1.10 अपर्याप्‍तं सं. पूरा श्‍लोक भीष्‍म. 51.6
12-19 तक आठ श्‍लोक। भीष्‍म. 51. 22-29, कुछ भेद रहते हुए शेष गीता के श्‍लोकों के समान ही हैं।
1.45 अहो बत महत्‍पापं 0 श्‍लोक। द्रोण. 197.50 कुछ शब्‍दभेद है, शेष गीता के श्‍लोक के समान।
2.19. उभौ सौ न विजानीत:. श्‍लोकार्थ। शान्ति. 224.14 कुछ पाठभेद होकर बलि-वासव-संवाद और कठोपनिषद में ( 2.18.) है।
2.28 अव्‍यक्‍तादीनि भूतानि. श्‍लोक। स्‍त्री. 2. 6; 9. 11; ‘ अव्‍यक्‍त ’ के बदले ‘अभाव ’ है, शेष सब समान है।
2.31 धर्म्र्याद्धि युद्धाच्‍छ्रेयो. श्‍लोकार्ध। भीष्‍म. 124. 36. भीष्‍म कर्ण को यही बतला रहे हैं।
2.32 यद्दच्‍छया 0 श्‍लोक। कर्ण. 57. 2 ‘ पार्थ ’ के बदले ‘ कर्ण ’ पद रख कर दुर्योधन कर्ण से कह रहा है।
2.46 यावान् अर्थ उदपाने. श्‍लोक। उद्योग. 45. 26 सनात्‍सुजातीय प्रकरण में कुछ शब्‍दभेद से पाया जाता है।
2.59 विषया विनिवर्तन्‍ते. श्‍लोक। शान्ति. 204. 16 मनु-ब्रहस्‍पति-संवाद में अक्षरश: मिलता है।
2.67 इंद्रियाणां हि चरतां. श्‍लोक। वन. 210. 26 ब्राह्मण-व्‍याघसंवाद में कुछ पाठभेद से आया है और पहले रथ का रूपक भी दिया गया है।
2.70 आपूर्यमाणमचलप्रतिष्‍ठं. श्‍लोक। शान्ति, 250. 9 शुकानु-प्रश्न में ज्‍यों का त्‍यों आया है।
3.42 इंद्रियाणि पराणयाहु:. श्‍लोक। शान्ति. 245.3 और 247. 2 का कुछ पाठभेद से शुकानु-प्रश्‍न में दो बार आया है। परन्‍तु इस श्‍लोक का मूल स्‍थान कठोपनिषद में है ( कठ. 3.10 )।
4.7 यदा यदा हि धर्मस्‍य. श्‍लोक। वन. 189. 27. मार्कडेय प्रश्‍न में ज्‍यों का त्‍यों है।
4.31 नायं लोकोऽस्‍त्‍ययज्ञस्‍य. श्‍लोकार्ध। शान्ति. 267. 40 गोकापिलीयाख्‍यान में पाया जाता है और सब प्रकरण यश यज्ञ विषयक ही है।
4.40 नायं लोकोऽस्ति न परो. श्‍लोकार्थ। वन. 199. 110. मार्कडेय-समस्‍यापर्व में शब्‍दश: मिलता है।
5.5 यत्‍सांख्‍यै: प्राप्‍यते स्‍थानं. श्‍लोक। शान्ति. 305. 19 और 316. 4 इन दोनों स्‍थानों में कुछ पाठभेद से वसिष्‍ठ-कराल और याज्ञवल्‍क्‍य -जनक के संवाद में पाया जाता है।
5.18 विद्याविनयसंपन्‍ने. श्‍लोक। शान्ति. 238. 19 शुकानुप्रश्‍न में अक्षरश: मिलता है।
6. 5. आत्‍मैव ह्यात्‍मनो बंधु:. श्‍लोकार्ध और आगामी श्‍लोक का अर्थ। उद्योग. 33. 63, 64. विदुरनीति में ठीक ठीक मिलता है।
6. 29 सर्वभूतस्‍थमात्‍मानं. श्‍लोकार्ध। शान्ति. 238. 21. शुकानुप्रश्‍न, मनु- स्‍मृति ( 12. 91 ), ईशावास्‍योपनिषद ( 6 ) और कैवल्‍योपनि – पद ( 1. 10 ) में तो ज्‍यों का त्‍यों मिलता है।
6. 44 जिज्ञासुरपि योगस्‍य 0 श्‍लोकार्ध। शान्ति. 235.7 शुकानुप्रश्‍न में कुछ पाठ भेद करके रखा गया है।
8.17 सहस्‍त्रयुगपर्यन्‍तं. यह श्‍लोक पहले युग का अर्थ न बतला कर गीता में दिया

गया है।

शान्ति. 231. 31 शुकानुप्रश्‍न में अक्षरश: मिलता है और युग का अर्थ बतलाने-वाला कोष्‍टक भी पहले दिया गया है। मनुस्‍मृति में भी कुछ पाठान्‍तर से मिलता है (मनु. 1. 73)।
8. 20 य: स सर्वेषु भूतेषु. श्‍लोकार्ध। शान्ति. 339. 23 नारायणि वर्ग में कुछ पाठान्‍तर होकर दो बार आया है।
9. 32 स्त्रियो वैश्‍यास्‍तथा. यह पूरा श्‍लोक और आगामी श्‍लोक का पूर्वार्ध। अश्‍व. 19. 61 और 62. अनुगीता में कुछ पाठान्‍तर के साथ ये श्‍लोक हैं ।
13. 13 सर्वत: पाणिपादं. श्‍लोक। शान्ति. 238. 29 अश्‍व 19. 49; शुकानुप्रश्‍न, अनुगीता तथा अन्‍यत्र भी यह अक्षरश: मिलता है। इस श्‍लोक का मूलस्‍थान श्‍वेताश्‍वतरोपनिषद ( 3. 16 ) है।

13. 30 यदा भूतपृथग्‍भावं. श्‍लोक।

शान्ति. 17. 23 युधिष्ठिर ने अर्जुन से यही शब्‍द कहे हैं।
14. 18 ऊर्ध्‍वै गच्‍छन्ति सत्त्वस्‍था. श्‍लोक। अश्‍व. 39. 10 अनुगीता के गुरु-शिष्‍य संवाद में अक्षरश: मिलता है।
16. 21 त्रिविधं नरकस्‍येदं. श्‍लोक। उद्योग. 32. 70 विदुरनीति में अक्षरश: मिलता है।
17. 3 श्रद्धामयोऽयं पुरुष:. श्‍लोकार्ध। शान्ति, 263. 17 तुलाधार-जाजलि-संवाद के श्रद्धाप्रकरण में मिलता है।
18. 14 अधिष्‍ठानं तथा कर्त्‍ता. श्‍लोक। शान्ति. 347. 87 नारायणीय-धर्म में अक्षरश: मिलता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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