गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
पन्द्रहवां प्रकरण
अनन्तर शीघ्र ही इस देश पर मुसलमानों की चढ़ाइयां होने लगीं; और, जब इस परचक्र से पराक्रमपूर्वक रक्षा करने वाले तथा देश के धारण-पोषण करने वाले क्षत्रिय राजाओं की कर्तृव्यशक्ति का मुसलमानों के जमाने में हास होने लगा, तब संन्यास और कर्मयोग में से संन्यासमार्ग ही सांसारिक लोगों को अधिकाधिक ग्राह्य होने लगा होगा, क्योंकि “राम राम’’ जपते हुए चुप बैठे रहने का एक देशीय मार्ग प्राचीन समय से ही कुछ लोगों की दृष्टि समझा जाता था और अब तो तत्कालीन ब्राह्य परिस्थिति के लिये भी वही मार्ग विशेष सुभीते का हो गया था। इसके पहले यह स्थिति नहीं थी; क्योंकि शुद्रकमलाकर में कहे गये विष्णुपुराण के निम्न श्लोक से भी यही मालूम होता हैः- अपहाय निजं कर्म कृष्ण कृष्णेति वादिनः। अर्थात् “अपने (स्वधर्मोक्त) कर्मों को छोड़ (केवल) कृष्ण कहते रहने वाले लोग हरि के द्वेषी और पापी हैं, क्योंकि स्वयं हरि का जन्म भी तो धर्म की रक्षा करने के लिये ही होता है।’’ सच पूछो तो ये लोग न तो संन्यासनिष्ट हैं और न कर्मयोगी; क्योंकि ये लोग संन्यासियों के समान ज्ञान अथवा तीव्र वैराग्य से सब सांसारिक कर्मों को नहीं छोड़ते हैं; और संसार में रह कर भी कर्मयोग के अनुसार अपने हिस्से के शास्त्रोक्त कर्त्तव्यों का पालन निष्काम बुद्धि से नहीं करते। इसलिये इन बातूनी संन्यासियों की गणना एक निराली ही तृतीय निष्ठा में होनी चाहिये जिसका वर्णन गीता में नही किया गया है। चाहे किसी भी कारण से हो, जब लोग इस तरह से तृतीय प्रकृति के बन जाते हैं, तब आखिर धर्म का भी नाश हुए बिना नहीं रह सकता। ईरान देश से पारसी धर्म के हटाये जाने के लिये भी ऐसी ही स्थिति कारण हुई थी; और इसी से हिन्दुस्तान में भी वैदिक धर्म के ‘समूलं च विनश्यति’ होने का समय आ गया था। परन्तु बौद्ध धर्म के हास के बाद वेदान्त के साथ ही गीता के भागवतधर्म का जो पुनरुज्जीवन होने लगा था, उसके कारण हमारे यहाँ यह दुष्परिणाम नहीं हो सका। जबकि दौलताबाद का हिन्दू राज्य मुसलमानों से नष्ट भ्रष्ट नहीं किया गया था, उसके कुछ वर्ष पूर्व ही श्रीज्ञानेश्वर महाराज ने हमारे सौभाग्य से भगवद्गीता को मराठी भाषा में अलंकृत कर ब्रह्माविधा को महाराष्ट्र प्रान्त में अति सुगम कर दिया था; और, हिन्दुस्तान के अन्य प्रान्तों में भी इसी समय अनेक साधुसन्तों ने गीता के भक्ति-मार्ग का उपदेश जारी कर रखा था। यवन ब्राह्मण चांडाल इत्यादि को एक समान और ज्ञानमूलक गीताधर्म का जाज्वल्य उपदेश (चाहे वह वैराग्ययुक्त भक्ति के रूप में ही क्यों न हो) एक ही समय चारों ओर लगातार जारी था, इसलिये हिन्दूधर्म का पूरा हास होने का कोई भय नहीं रहा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ बंबई के छपे हुए विष्णुपुराण में यह श्लोक नहीं मिला। परन्तु इसका उपयोग कमलाकर सरीखे प्रामाणिक ग्रंथकार ने किया है, इससे वह निराधार भी नहीं कहा जा सकता।
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