गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
पन्द्रहवां प्रकरण
इसी से शास्त्रों का सिद्धान्त है, कि सच्चे ब्रह्मज्ञानी पुरुष की पहचान उसके स्वभाव से ही हुआ करती है, जो केवल मुंह से कोरी बातें करता है वह सच्चा साधु नहीं। भगवद्गीता में भी स्थितप्रज्ञों तथा भगवत भक्तों का लक्षण बतलाते समय खास करके इसी बात का वर्णन किया गया है, कि वे संसार के अन्य लोगों के साथ बर्ताव करते हैं; और, तेरहवें अध्याय में ज्ञान की व्याख्या भी इसी प्रकार-अर्थात यह बतलाकर कि स्वभाव पर ज्ञान का क्या परिणाम होता है- की गई है। इससे यह साफ मालूम होता है, कि गीता यह कभी नहीं कहती कि बाह्य कर्मों की ओर कुछ भी ध्यान न दो। परन्तु, इस बात पर भी ध्यान देना चाहिये, कि किसी मनुष्य की-विशेष करके अनजाने मनुष्य की-बुद्धि की समता की परीक्षा करने के लिये यद्यपि केवल उसका बाह्य कर्म या आचरण (और, उसमें भी, संकट समय का आचरण) ही प्रधान साधन है, तथापि केवल इस बाह्य आचरण द्वारा ही नीतिमत्ता की अचूक परीक्षा हमेशा नहीं हो सकती। क्योंकि उक्त नकुलोपाख्यान से यह सिद्ध हो चुका है, कि यदि बाह्य कर्म छोटा भी हो तथापि विशेष अवसर पर नैतिक योग्यता बड़े कर्मों के ही बराबर हो जाती है। इसीलिये हमारे शास्त्रकारों ने यह सिद्धान्त किया है, कि बाह्य कर्म चाहे छोटा हो या बड़ा, और वह एक ही को सुख देने वाला हो या अधिकांश लोगों को, उसको केवल बुद्धि की शुद्धता का एक प्रमाण मानना चाहिये- इससे अधिक महत्त्व उसे नहीं देना चाहिये; किंतु उस बाह्य कर्म के आधार पर पहले यह देख लेना चाहिये कि कर्म करने वाले की बुद्धि कितनी शुद्ध है; और, अन्त में इस रीति से व्यक्त होने वाली शुद्ध बुद्धि के आधार पर ही उक्त कर्म की नीतिमत्ता का निर्णय करना चाहिये- यह निर्णय केवल बाह्य कर्मों को देखने से ठीक ठीक नहीं हो सकता।यही कारण है कि ’कर्म की अपेक्षा बुद्धि श्रेष्ठ है’[1] ऐसा कहकर गीता के कर्मयोग में सम और शुद्ध बुद्धि को अर्थात वासना को ही प्रधानता दी गई है। नारदपच्चरात्र नामक भागवतधर्म का गीता से भी अर्वाचीन एक ग्रन्थ है; उसमें मार्कंडेय नारद से कहते हैः- मानसं प्राणिनामेव सर्वकमैंककारणम्। मनोनुरूपं वाक्यं च वाक्येन प्रस्फुटं मनः।। अर्थात मन ही “लोगों के सब कर्मों का एक (मूल) कारण है। जैसा मन रहता है वैसी ही बात निकलती है और बातचीत से मन प्रगट होता है”[2]। सारांश यह है कि मन (अर्थात मन का निश्चय) सब से प्रथम है, उसके अनन्तर सब कर्म हुआ करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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