गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
चौदहवां प्रकरण
बरन् भागवतधर्म में वर्णित जीव के उत्पत्ति विषयक इस मत को वेदान्तसूत्रों की नाई गीता ने भी त्याज्य माना है, कि वासुदेव से संकर्षण या जीव उत्पन्न हुआ है; और, भागवतधर्म में वर्णित भक्ति का तथा उपनिषदों के क्षेत्रक्षेत्रज्ञ सम्बन्धी सिद्धान्त का पूरा पूरा मेल कर दिया है। इसके सिवा मोक्ष प्राप्ति का दूसरा साधन पातंजलयोग है। यद्यपि गीता का कहना यह नहीं है, कि पातंजलयोग ही जीवन का मुख्य कर्त्तव्य है; तथापि गीता यह कहती है, कि बुद्धि को सम करने के लिये इन्द्रिय-निग्रह करने की आवश्यकता है इसलिये उतने भर के लिये पातंजलयोग के यम-नियम आसन आदि साधनों का उपयोग कर लेना चाहिये। सारांश, वैदिक धर्म में मोक्ष-प्राप्ति के जो जो साधन बतलाये गये हैं उन सभी का कुछ न कुछ वर्णन, कर्मयोग का सांगोपांग विवेचन करने के समय, गीता में प्रसंगानुसार करना पड़ा है। यदि इन सब वर्णनों को स्वतंत्र कहा जाय, तो विसंगति उत्पन्न होकर ऐसा भास होता है कि गीता के सिद्धान्त परस्पर विरोधी हैं ; और, यह भास भिन्न भिन्न साम्प्रदायिक टीकाओं से तो और भी अधिक दृढ़ हो जाता है। परन्तु जैसा हमने ऊपर कहा है उसके अनुसार यदि यह सिद्धान्त किया जाय, कि ब्रह्मज्ञान और भक्ति का मेल करके अन्त में उसके द्वारा कर्मयोग का समर्थन करना ही गीता का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है, तो ये सब विरोध लुप्त हो जाते हैं; और गीता में जिस अलौकिक चातुर्य से पूर्ण व्यापक दृष्टि को स्वीकार कर तत्वज्ञान के साथ भक्ति तथा कर्मयोग का यथोचित मेल कर दिया गया है, उसको देख दांतों तले अँगुली दबाकर रह जाना पड़ता है! गंगा में कितनी ही नदियां क्यों न आ मिलें, परन्तु इससे उसका मूल स्वरूप नहीं बदलता; बस, ठीक यही हाल गीता का भी है। यद्यपि इस प्रकार कर्मयोग ही मुख्य विषय है, तथापि कर्म के साथ ही साथ मोक्ष-धर्म के मर्म का भी उसमें भली-भाँति निरूपण किया गया है; इसलिये कार्य-अकार्य का निर्णय करने के हेतु बतलाया गया है; यह गीताधर्म ही-‘ स हि धर्म: सुपर्याप्तो ब्रह्मण: पदवेदने ‘[1]– ब्रह्म की प्राप्ति करा देने के लिये भी पूर्ण समर्थ है; और, भगवान् ने अर्जुन से अनुगीता के आरम्भ में स्पष्ट रीति से कह दिया है, कि इस मार्ग से चलनेवाले को मोक्ष प्राप्ति के लिये किसी भी अन्य अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं है। हम जानते हैं कि संन्यास-मार्ग के उन लोगों को हमारा कथन रोचक प्रतीत न होगा जो यह प्रतिपादन किया करते हैं, कि बिना सब व्यावहारिक कर्मों का त्याग किये मोक्ष की प्राप्ति हो नहीं सकती; परन्तु इसके लिये कोई इलाज नहीं है। गीता-ग्रन्थ न तो संन्यास मार्ग का है और न निवृत्ति-प्रधान किसी दूसरे ही पंथ का। गीताशास्त्र की प्रवृत्ति तो इसी लिये है, कि वह ब्रह्मज्ञान की दृष्टि से ठीक ठीक युक्ति सहित इस प्रश्न का उत्तर दे, कि ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर भी कर्मों का संन्यास करना अनुचित क्यों है? इसलिये संन्यास-मार्ग के अनुयायियों को चाहिये, के वे गीता को भी 'संन्यास देने' की झंझट में न पड़, ‘संन्यास-मार्ग-प्रतिपादक' जो अन्य वैदिक ग्र्न्थ हैं उन्हीं से संतुष्ट रहें। अथवा गीता में संन्यास-मार्ग को भी भगवान् ने जिस निरभिमानबुद्धि से नि:श्रेयस्कर कहा है, उसी सम-बुद्धि से सांख्य-मार्गवालों को भी यह कहना चाहिये, कि ‘’परमेश्वर का हेतु यह है कि संसार चलता रहे; और जबकि इसलिये वह बार-बार अवतार धारण करता है, तब ज्ञान-प्राप्ति के अनन्तर निष्काम-बुद्धि से व्यावहारिक कर्मों को करते रहने के जिस मार्ग का उपदेश भगवान् ने गीता में दिया है, वही मार्ग कलिकाल में उपयुक्त है ‘’-ऐसा कहना ही सर्वोत्तम पक्ष है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मभा. अश्व. 16. 12
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