गीता रहस्य -तिलक पृ. 451

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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चौदहवां प्रकरण

इसलिये यदि गीता के अनुसार किसी भक्तिमान पुरुष की निष्‍ठा के विषय में निश्‍यचय करना हो, तो यह निर्णय केवल इसी बात से नहीं किया जा सकता कि वह भक्ति भाव में लगा हुआ है; परन्तु इस बात का विचार किया जाना चाहिये‍ कि वह कर्म करता है या नहीं। भक्ति परमेश्‍वर–प्राप्ति का एक सुगम साधन है; और साधन के नाते से यदि भक्ति ही को ‘योग‘ कहें[1], तो भी वह अन्तिम ‘निष्‍ठा‘ नहीं हो सकती। भक्ति के द्वारा परमेश्‍वर का ज्ञान हो जाने पर जो मनुष्‍य कर्म करेगा उसे ‘कर्म-निष्‍ठ‘ और जो न करेगा उसे ‘सांख्‍यनिष्‍ठ’ कहना चाहिये। पांचवे अध्‍याय में भगवान ने अपना यह अभिप्राय स्‍पष्‍ट बतला दिया है, कि उक्‍त दोनों निष्‍ठाओं में कर्म करने की निष्‍ठा अधिक श्रेयस्‍कर है। परन्‍तु कर्म पर संन्‍यास मार्गवालों का यह महत्‍वपूर्ण आक्षेप है, कि परमेश्‍वर का ज्ञान होने में कर्म से प्रतिबंध होता है: और परमेश्‍वर के ज्ञान बिना तो मोक्ष की प्राप्ति ही नहीं हो सकती; इसलिये कर्मों का त्‍याग ही करना चाहिये। पांचवे अध्‍याय में सामान्‍यत: यह बतलाया गया है, कि उपर्यक्‍त आक्षेप असत्‍य हैं और सन्‍यास मार्ग से जो मोक्ष मिलता है, वही कर्मयोग-मार्ग से भी मिलता है[2]। परन्‍तु वहाँ इस सामान्‍य सिद्धान्‍त का कुछ भी खुलासा नहीं किया गया था।
इसलिये अब भगवान् इस बचे हुए तथा महत्‍वपूर्ण विषय का विस्‍तृत निरूपण कर रहे हैं, कि कर्म करते रहने ही से परमेश्‍वर के ज्ञान की प्राप्ति होकर मोक्ष किस प्रकार मिलता है। इसी हेतु से सातवें अध्‍याय के आरम्‍भ में अर्जुन से यह न कहकर, कि मैं तुझे भक्ति नामक एक स्‍वतंत्र तीसरी निष्‍ठा बतलाता हूँ, भगवान् यह कहते हैं कि–

मय्यासक्‍तमना: पार्थ योगं युंजन् मदाश्रय:।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्‍यसि तच्‍छृणु।।

‘’हे पार्थ! मुझमें चित्त को स्थिर करके और मेरा आश्रय लेकर योग यानी योग कर्म-योगा का आचरण करते समय, ‘यथा आर्थात् जिस रीति से मुझे सन्‍देह-रहित पूर्णतया जान सकेगा, वह ( रीति तुझे बतलाता हूँ ) सुन‘’[3]; और इसी को आगे के श्‍लोक में ‘ज्ञान-विज्ञान‘ कहा है[4]। इनमें से पहले अर्थात् ऊपर दिये गये ‘’मय्यासक्‍तमना:‘’श्‍लोक में ‘योग युंजन्‘-अर्थात् कर्मयोग का आचरण करते हुए’-ये पद अत्‍यन्‍त महत्‍व पूर्ण हैं। परन्‍तु किसी भी टीकाकार ने इनकी ओर विशेष ध्‍यान नही दिया है। ‘योगं‘ अर्थात् वही कर्मयोग है कि जिसका वर्णन पहले छ: अध्‍यायों में किया जा चुका है; और हम इस कर्मयोग का आचरण करते हुए जिस प्रकार, विधि या रीति से भगवान् का पूरा ज्ञान हो जायगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी. 14. 26
  2. गी. 5. 5
  3. गी. 7. 1
  4. गी. 7. 2

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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