गीता रहस्य -तिलक पृ. 444

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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चौदहवां प्रकरण

उसका प्रारम्‍भ उन दो निष्‍ठाओं से ही किया गया है कि जिन्‍हें इस संसार के ज्ञानी मनुष्‍यों ने ग्राह्य माना है और जिन्‍हें ‘कर्म छोड़ना‘ ( सांख्‍य ) और ‘ कर्म करना ‘ ( योग ) कहते हैं: तथा युद्ध करने की आवश्‍यकता की उपपत्ति पहले सांख्‍य–निष्‍ठा के अनुसार बतलाई गयी है। परनतु जब यह देखा गया कि इस उपपत्ति से काम नहीं चलता-यह अधूरी है-तब फिर तुरंत ही योग या कर्मयोग-मार्ग के अनुसार ज्ञान बतलाना आरम्‍भ किया है; और यह बतलाने के पश्‍चात्, कि इस कर्मयोग का अल्‍प आचरण भी कितना श्रेयस्‍कर है, दूसरे अध्‍याय में भगवान् ने अपने उपदेश को इस स्‍थान तक पहँचा दिया है-कि जब कर्मयोग-मार्ग में कर्म की अपेक्षा वह बुद्धि ही श्रेष्‍ठ मानी जाती है जिससे कर्म करने की प्रेरणा हुआ करती है, तो अब स्थितप्रज्ञ की नाई तू अपनी बुद्धि को सम करके अपना कर्म कर, जिससे तू कदापि पाप का भागी न होगा। अब देखना है कि आगे कौन कौन से प्रश्‍न उपस्थित होते हैं। गीता के सारे उपपादन की जड़ दूसरे अध्‍याय में ही है; इसलिये इसके विषय का विवेचन यहाँ कुछ विस्‍तार से किया गया है।

तीसरे अध्‍याय के आरम्‍भ में अर्जुन ने प्रश्‍न किया है, कि ‘’यदि कर्मयोगमार्ग में भी कर्म की अपेक्षा बुद्धि ही श्रेष्‍ठ मानी जाती है, तो मैं अभी स्थितप्रज्ञ की नाई अपनी बुद्धि को सम किये लेता हूँ; फिर आप मुझसे इस युद्ध के समान घोर कर्म करने के लिये कहते हैं? ‘’इसका कारण यह है, कि कर्म की अपेक्षा बुद्धि को श्रेष्‍ठ कह देने से ही इस प्रशन का निर्णय नहीं हो जाता है कि- ‘’युद्ध क्‍यों करें? बुद्धि को सम रख कर उदासीन क्‍यों न बैंठे रहें?‘’ बुद्धि को सम रखने पर भी कर्म-संन्‍यास किया जाता है। फिर जिस मनुष्‍य की बुद्धि सम हो गई है उसे सांख्‍यमार्ग के अनुसार कर्मों का त्‍याग करने में क्‍या हर्ज है? इस प्रश्‍न का उत्‍तर भगवान् इस प्रकार देते हैं, कि पहले तुझे सांख्‍य और योग नामक दो निष्‍ठाएं बतलाई हैं सही; परन्‍तु यह भी स्‍मरण रहे कि किसी मनुष्‍य के कर्मों का सर्वथा छूट असम्‍भव है। जब तक वह देहधारी है तब तक प्रकृति स्‍वभावत: उससे कर्म करावेगी ही; और जबकि प्रकृति के ये कर्म छूटते ही नहीं है, तब तो इन्द्रिय-निग्रह के द्वारा बुद्धि को स्थिर और सम करके केवल कर्मेन्द्रियों से ही अपने अपने सब कर्त्तव्‍य कर्मों को करते रहना अधिक श्रेयसकर है। इसलिये तू कर्म कर; यदि कर्म नहीं करेगा तो तुझे खाने तक को न मिलेगा[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 3. 3-8

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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