गीता रहस्य -तिलक पृ. 422

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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तेरहवां प्रकरण

यदि ऐेसे तार्किकों के कथन का सिर्फ इतना अर्थ हो, कि ब्रह्मात्‍मैक्‍यज्ञान के होने पर भक्ति का प्रवाह रुक जाता है, तो उसमें कुछ आपत्ति देख नहीं पड़ती। क्‍योंकि अध्‍यात्‍मशास्‍त्र का भी यही सिद्धान्‍त है, कि जब उपास्‍य, उपासक और उपासनारूपी त्रिपुटी का लय हो जाता है, तब वह व्‍यापार बन्‍द हो जाता है जिसे व्‍यवहार में भक्ति कहते हैं। परन्‍तु यदि उक्‍त दलील का यह अर्थ हो कि द्वैतमूलक भक्तिमार्ग से अन्‍त में अद्वैत ज्ञान हो ही नहीं सकता, तो यह दलली न केवल तर्कशास्‍त्र की दृष्टि से किन्‍तु बड़े-बड़े भगवद्भक्‍तों के अनुभव के अधार से भी मिथ्‍या सिद्ध हो सकती है। तर्कशास्‍त्र की दृष्टि से इस बात में कुछ रुकावट नहीं देख पड़ती कि परमेश्‍वर-स्‍वरूप में किसी भक्‍त का चित्त ज्‍यों ज्‍यों आधिकाधिक स्थिर होता जावे, त्‍यों त्‍यों उसके मन से भेद–भाव भी छूटता चला जावे। ब्रह्म-सृष्टि में भी हम यही देखते हैं कि यद्यपि आरम्‍भ में पारे की बूँदे भिन्‍न भिन्‍न होती है, तथापि वे आपस में मिल कर एकत्र हो जाती हैं; इसी प्रकार अन्‍य पदार्थों में भी एकीकरण की क्रिया का आरम्‍भ प्राथमिक भिन्‍नता ही से हुआ करता है; और भृंगि-कीट का दृष्‍टान्‍त तो सब लोगों को विदित ही है। इस विषय में तर्कशास्‍त्र की अपेक्षा साधुपुरुषा के प्रत्‍यक्ष अनुभव को ही अधिक प्रामाणिक समझाना चाहिये। भगवद्भक्‍त-शिरोमणि तुकाराम महाराज का अनुभव हमारे लिये विशेष महत्‍व का है। सब लोग जानते हैं कि तुकाराम महाराज को कुछ उपनिषदादि ग्रन्‍थों के अध्‍ययन से अध्‍यात्‍मज्ञान प्राप्‍त नहीं हुआ था।

तथापि उनकी गाथा में लगभग चार सौ ‘अभंग’ अद्वैत-स्थिति के वर्णन में कहे गये हैं। इन सब अभंगों में ‘’वासुदेव: सर्व‘’[1] का भाव प्रतिपादित किया गया है अथवा बृहदारणयकोपनिषद में जैसा याज्ञवल्‍क्‍य ने ‘’सर्वमात्‍मैवाभूत्‘’ कहा है, वैसे ही अर्थ का प्रतिपादन स्‍वानुभव से किया गया है। उदाहरण के लिये उनके एक अभंग का कुछ आशय देखिये–

गुड़ सा मीठा है भगवान, बाहर-भीतर एक समान।
किसका ध्‍यान करूं सविवेक? जल-तरंग से हैं हम एक।।

इसके आरम्‍भ का उल्‍लेख हमने अध्‍यात्‍म–प्रकरण में किया है और वहाँ यह दिखलाया है कि उपनिषदों में वर्णित ब्रह्मात्‍मैक्‍यज्ञान से उनके अर्थ की किस तरह पूरी पूरी समता है। जबकि स्‍वयं तुकाराम महाराज अपने अनुभव से भक्‍तों की परमावस्‍था का वर्णन इस प्रकार कर रहे हैं, तब यदि कोई तार्किक यह कहने का साहस करे-कि ‘’ भक्तिमार्ग से अद्वैतज्ञान हो नहीं सकता,‘’ अथवा ‘’देवताओं पर केवल अन्‍धविश्‍वास करने से ही मोक्ष मिल जाता है, उसके लिये ज्ञान की कोई आवश्‍यकता नहीं, है‘’-तो इसे आश्‍चर्य ही समझना चाहिये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी. 7. 19

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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