गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
तेरहवां प्रकरण
उसके अनुसार जब प्राचीन समय में ऋषियों ने राजाओं को ब्रह्मविद्या का उपदेश किया तब से ब्रह्मविद्या या अध्यात्मज्ञान ही को राजविद्या और राजगुह्य कहने लगे हैं, इसलिये गीता में भी इन शब्दों से वही अर्थ यानी अध्यात्मज्ञान-भक्ति नहीं लिया जाना चाहिये। गीता-प्रतिपादित मार्ग भी मनु. इक्ष्वाकु प्रभृति राजपरम्परा ही से प्रवृत्त हुआ है[1]; इसलिये नहीं कहा जा सकता, कि गीता में ‘राजविद्या’ और ‘राजगुह्य’ शब्द ‘राजाओं की विद्या’ और ‘राजाओं का गुह्य’ यानी राजमान्य विद्या और गुह्य-के अर्थ में उपयुक्त न हुए हों। परन्तु इन अर्थों को मान लेने पर भी यह ध्यान देने योग्य बात है, कि इस स्थान में ये शब्द ज्ञान मार्ग के लिये उपयुक्त नहीं हुए हैं। कारण यह है, कि गीता के जिस अध्याय में यह श्लोक आया है उसमें भक्ति-मार्ग का ही विशेष प्रतिपादन किया गया है[2]; और यद्यपि अन्तिम साध्य ब्रह्म एक ही है, तथापि गीता में ही अध्यात्मविद्या का साधनात्मक ज्ञानमार्ग केवल ‘बुद्धिगम्य’ अतएव ‘अव्यक्त’ और ‘दुखकारक’ कहा गया है[3]; ऐसी अवस्था में यह असम्भव जान पड़ता है, कि भगवान अब उसी ज्ञानमार्ग को ‘प्रत्यक्षावगमं’ यानी व्यक्त और ‘कर्तुं सुसुखं’ यानी आचरण करने में सुखकारक कहेंगें। अतएव प्रकरण की सभ्यता के कारण, और केवल भक्ति मार्ग ही के लिये सर्वथा उपयुक्त होने वाले ‘प्रत्यक्षावगमं’ तथा ‘कर्तु सुसुखं’ पदों की स्वारस्य-सत्ता के कारण,-अर्थात् इन दोनों कारणों से-यही सिद्ध होता है कि इस श्लोक में ‘राजविद्य’ शब्द से भक्तिमार्ग ही विवक्षित है। ‘ विद्या’ शब्द केवल ब्रह्मज्ञान सूचक नहीं है; किन्तु परब्रह्म का ज्ञान प्राप्त कर लेने के जो साधन या मार्ग हैं उन्हें भी उपनिषदों में ‘विद्या’ ही कहा है। उदाहरणार्थ, शाण्डिल्यविद्या, प्राणविद्या, हार्दविद्या इत्यादि। वेदान्त सूत्र के तीसरे अध्याय के तीसरे पाद में, उपनिषदों में वर्णित ऐसी अनेक प्रकार की विद्याओं का अर्थात् साधनों का विचार किया गया है। उपनिषदों से यह भी विदित होता है कि प्राचीन समय में ये सब, विद्याएं गुप्त रखी जाती थीं और केवल शिष्यों के अतिरिक्त अन्य किसी को भी उनका उपदेश नहीं किया जाता था। अतएव कोई भी विद्या हो वह गुह्य अवश्य ही होगी। परन्तु ब्रह्मप्राप्ति के लिये साधनीभूत होने वाली जो ये गुह्य विद्याएं या मार्ग हैं वे यद्यपि अनेक हों तथापि उन सब में गीता- प्रतिपादित भक्तिमार्गरूपी विद्या अर्थात् साधन श्रेष्ठ ( गुह्यानां विद्यानां च राजा ) है। क्योंकि हमारे मतानुसार उक्त श्लोक का भावार्थ यह है-कि वह ( भक्तिमार्गरूपी साधन ) ज्ञानमार्ग की विद्या के समान ‘अव्यक्त‘ नहीं है, किन्तु वह प्रत्यक्ष आंखों से दिखाई देने वाला है, और इसी लिये उसका आचरण भी सुख से किया जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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