गीता रहस्य -तिलक पृ. 404

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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तेरहवां प्रकरण

इसलिये जब तक मन के सामने आधार के किये कोई इन्द्रिय-गोचर स्थिर वस्‍तु न हो, तब तक यह मन बारबार भूल जाया करता है कि स्थिर कहाँ होना है। चित्‍त की स्थ्‍िारता का यह मानसिक कार्य बड़े बड़े ज्ञानी पुरुषों को भी दुष्‍कर प्रतीत होता है; तो फिर साधारण मनुष्‍यों के लिये कहना ही क्‍या? अतएव रेखागणित के सिद्धान्‍तों की शिक्षा देतें समय जिस प्रकार ऐसी रेखा की कल्‍पना करने के लिये, कि जो अनादि, अनन्‍त और बिना चौड़ाई की ( अव्‍यक्‍त ) है, किन्‍तु जिसमें लम्‍बाई का गुण होने से सगुण है, उस रेखा का एक छोटा सा नमूना स्‍लेट या तख्‍ते पर व्‍यक्‍त करके दिखलाना पड़ता है; उसी प्रकार ऐसे परेश्‍वर पर प्रेम करने और उसमें अपनी वृत्ति को लीन करने के लिये, कि जो सर्व-कर्त्‍ता, सर्वशक्तिमान्, सर्वज्ञ ( अतएव सगुण ) है, परन्‍तु निराकार अर्थात् अव्‍यक्‍त है, मन के सामने ‘प्रत्‍यक्ष‘ नाम रूपात्‍मक किसी वस्‍तु के रहे बिना साधारण मनुष्‍यों का काम चल नहीं सकता[1]

यही क्‍यों; पहले किसी व्‍यक्‍त पदार्थ के देखे बिना मनुष्‍य के मन में अव्‍यक्‍त की कल्‍पना ही जागृत हो नहीं सकती। उदाहरणार्थ, जब हम लाल, हरे इत्‍यादि अनेक व्‍यक्‍त रंगो के पदार्थ पहले आंखो से देख लेते हैं तभी ‘रंग’ की सामान्‍य और अव्‍यक्‍त कल्‍पना जागृत होती है; यदि ऐसा न हो तो ‘रंग’ की यह अव्‍यक्‍त कल्‍पना हो ही नहीं सकती। अब चाहें इसे कोई मनुष्‍य के मन का स्‍वभाव कहें या दोष; कुछ भी कहा जाय, जब तक देहधारी मनुष्‍य अपने मन के इस स्‍वभाव को अलग नहीं कर सकता, तब तक उपासना के लिये यानी भक्ति के लिये निर्गुण से सगुण में-और उसमें भी अव्‍यक्‍त सगुण की अपेक्षा व्‍यक्‍त सगुण ही में-आना पड़ता है; इसके अतिरिक्‍त अन्‍य कोई मार्ग नहीं। यही कारण है कि व्‍यक्‍त उपासना का मार्ग अनादि काल से प्रचलित है; रामतापनीय आदि उपनिषदों में मनुष्‍यरूपधारी व्‍यक्‍त ब्रह्मस्‍वरूप की उपासना का वर्णन है और भगवद्गीता में भी यही कहा गया है-

क्लेशोअधिकतरस्‍तेषां अव्यक्‍तसक्‍तचेतसाम्।
अव्‍यक्‍ता हि गतिर्दु:खं देहवद्भिरवाप्‍यते।।

अर्थात् ‘’अव्‍यक्‍त में चित्त की ( मन की ) एकाग्रता करने वाले को बहुत कष्‍ट होते हैं; क्‍योंकि इस अव्‍यक्‍तगति को पाना देहेंद्रियधारी मनुष्‍य के लिये स्‍वभावत: कष्‍ट-दायक है’’-[2]। इस ‘प्रत्‍यक्ष’ मार्ग ही को भक्तिमार्ग कहते हैं। इसमें कुछ सन्‍देह नहीं कि कोई बुद्धिमान पुरुष अपनी बुद्धि से परब्रह्म के स्‍वरूप का निश्‍चय कर उसके अव्‍यक्‍त स्‍वरूप में केवल अपने विचारों के बल से अपने मन को स्थिर कर सकता है। परन्‍तु इस रीति से अव्‍यक्‍त में ‘मन’ को आसक्‍त करने का काम भी तो अन्‍त में श्रद्धा और प्रेम से ही सिद्ध करना होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इस विषय पर एक श्‍लोक है जो योगवासिष्‍ठ का कहा जाता है:- अक्षरावगमलब्‍धये यथा स्‍थूलवर्तुलदृषत्‍परिग्रह:। शुद्धबुद्धपरिलब्‍धये तथा दारुमण्‍मयशिलामयार्चनम्।। ‘’अक्षरों का परिचय कराने के लिये लड़कों के समाने जिस प्रकार छोटे छोटे कंकड़ रख कर अक्षरों का आकार दिखलाना पड़ता है, उसी प्रकार ( नित्‍य ) शुद्धबुद्ध परब्रह्म का ज्ञान होने के लिये लकड़ी, मिट्टी या पत्‍थर की मूर्ति का स्‍वीकार किया जाता है।‘’ परन्‍तु यह श्‍लोक बृहत्‌योगवासिष्‍ठ में नहीं मिलता।
  2. 12. 5.

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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