गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
तेरहवां प्रकरण
यदि सिर्फ़ इतना ही जान लेने से हमारा काम चल निकले कि ब्रह्म निर्गुण है तो इसमें सन्देह नहीं कि यह काम उपर्युक्त कथन के अनुसार श्रद्धा से किया जा सकता है[1]। परन्तु नवें प्रकरण के अन्त में कह चुके ब्राह्मी स्थिति या सिद्धावस्था की प्राप्ति कर लेना ही इस संसार में मनुष्य का परमसाध्य या अन्तिम ध्येय है, और उसके लिये केवल यह कोरा ज्ञान, कि ब्रह्म निर्गुण है, किसी काम का नहीं। दीर्घ समय के अभ्यास और नित्य की आदत से इस ज्ञान का प्रवेश हृदय में तथा देहेन्द्रियों में अच्छी तरह हो जाता हो जाना चाहिये और आचरण के द्वारा ब्रह्मात्मैक्य बुद्धि ही हमारा देह-स्वभाव हो जाना चाहिये; ऐसा होने के लिये परमेश्वर के स्वरूप का प्रेमपूर्वक चिन्तन करके मन को तदाकार करना ही एक सुलभ उपाय है। यह मार्ग अथवा साधन हमारे देश में बहुत प्राचीन समय से प्रचलित है और इसी को उपासना या भक्ति कहते हैं भक्ति का लक्षण शाण्डिल्य सूत्र ( 2 ) में इस प्रकार है कि ‘’सा ( भक्ति ) परानुरक्तिरीश्वरे‘’-ईश्वर के प्रति ‘पर’ अर्थात् निरातिशय जो प्रेम है उसे भक्ति कहते हैं। ‘पर’ शब्द का (गी. र. 52 ) अर्थ केवल निरतिशय ही नहीं है; किन्तु भागवतपुराण में कहा है कि वह प्रेम निर्हेतुक, निष्काम और निरन्तर हो-‘’अहेतुक्यव्यवहिता या भक्ति: पुरुषोत्तमे’’[2]। कारण यह है कि, जब भक्ति इस हेतु से की जाती है कि ‘’ईश्वर! मुझे कुछ दे’’ तब वैदिक यज्ञ-यागादिक काम्य कर्मों के समान उसे भी कुछ न कुछ व्यापार का स्वरूप प्राप्त हो जाता है। ऐसी भक्ति राजस कहलाती है और उससे चित्त की शुद्धि पूरी पूरी नहीं होती। जबकि चित्त की शुद्धि ही पूरी नहीं हुई, तब कहना नहीं होगा कि आध्यात्मिक उन्नति में और मोक्ष की प्राप्ति में भी बाधा आ जायगी। अध्यात्मशास्त्र-प्रतिपादित पूर्ण निष्कामता का तत्त्व इस प्रकार भक्ति-मार्ग में भी बना रहता है। और, इसीलिये गीता में भगवद्भक्तों की चार श्रेणियां करके कहा है, कि जो ‘अर्थार्थी’ है यानी जो कुछ पाने के हेतु परमेश्वर की भक्ति करता है वह निकृष्ट श्रेणी का भक्त है; और परमेश्वर का ज्ञान होने के कारण जो स्वयं अपने लिये कुछ प्राप्त करने की इच्छा नहीं रखता[3], परन्तु नारद आदिकों के समान जो ‘ज्ञानी’ पुरुष केवल कर्त्तव्य-बुद्धि से ही परमेश्वर की भक्ति करता है, वही सब भक्तों में श्रेष्ठ है[4]। यह भक्ति भागवत पुराण[5] के अनुसार नौ प्रकार की है, जैसे- श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पादसेवनम्। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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