गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
तेरहवां प्रकरण
सारांश, जिस दृश्य सृष्टि-विलक्षण, अनिर्वाच्य और अचिन्त्य परब्रह्म का यह वर्णन है- कि वह मुँह बन्द कर बतलाया जा सकता है, आंखों से दिखाई न देने पर उसे देख सकते हैं और समझ में न आने पर वह मालूम होने लगता है[1]–उसको साधारण बुद्धि के मनुष्य कैसे पहचान सकेंगे और उसके द्वारा साम्यावस्था प्राप्त हो कर उनको सद्गति कैसे मिलेगी? जब परमेश्वर स्वरूप का अनुभवात्मक और यथार्थ ज्ञान ऐसा होवे, कि सब चराचर सृष्टि में एक ही आत्मा प्रतीत होने लगे, तभी मनुष्य की पूरी उन्नति होगी; और यदि ऐसी उन्नति कर लेने के लिये तीव्र बुद्धि के अतिरिक्त कोई दूसरा मार्ग हो न हो, तो संसार के लाखों करोड़ों मनुष्यों को ब्रह्म प्राप्ति की आशा छोड़ चुपचाप बैठ रहना होगा! क्योंकि बुद्धिमान् मनुष्यों की संख्या हमेशा कर्म रहती है। यदि यह कहें कि विश्वास रखन से काम चल सकता है, तो यह बात आप ही आप सिद्ध हो जाती है, कि इस गहन ज्ञान की प्राप्ति के लिये ‘’विश्वास अथवा श्रद्धा रखना‘’ बुद्धि के अतिरिक्त कोई दूसरा मार्ग है। सच पूछो तो यही देख पड़ेगा, कि ज्ञान की पूर्ति अथवा फलद्रूपता श्रद्धा के बिना नहीं होती। यह कहना– कि सब ज्ञान केवल बुद्धि ही से प्राप्त होता है, उसके लिये किसी अन्य मनोवृत्ति की सहायता आवश्यक नहीं है-उन पण्डितों का वृथाभिमान है जिनकी बुद्धि केवल तर्कप्रधान शास्त्रों का जन्म भर अध्ययन करने से कर्कश हो गई है। उदाहरण के लिये यह सिद्धान्त लीजिये कि कल सबेरे फिर सूर्योदय होगा। हम लोग इस सिद्धान्त के ज्ञान को अत्यन्त निश्चित मानते हैं। क्यों? उत्तर यही है, कि हमने और हमारे पूर्वजों ने इस क्रम को हमेशा अखंडित देखा है। परंतु कुछ अधिक विचार करने से मालूम होगा, कि ‘हमने अथवा हमारे पूर्वजों ने अब तक प्रतिदिन सबेरे सूर्य निकलते देखा है, ‘यह बात कले सबेरे सूर्योदय होने का कारण नहीं हो सकती; अथवा प्रतिदिन हमारे देखने के लिये या हमारे देखने से ही कुछ और ही कारण हैं अच्छा, अब यदि ‘हमारा सूर्य को प्रतिदिन देखना’ कल सूर्योदय होगा? दीर्घकाल तक किसी वस्तु का क्रम एक सा अबाधित देख पड़ने पर, यह मान लेना भी एक प्रकार का विश्वास या श्रद्धा ही है न, कि वह क्रम आगे भी वैसा ही नित्य चलता रहेगा। यद्यपि हम उसको एक बहुत बड़ा प्रतिष्ठत नाम ‘’अनुमान‘’ दे दिया करते हैं: तो भी यह ध्यान में रखन चाहिये, कि यह अनुमान बुद्धिगम्य कार्यकारणात्मक नहीं है, किन्तु उसका मूलस्वरूप श्रद्धात्मक ही है। मन्नू को शक्कर मीठी लगती है इसलिये छन्नू को भी वह मीठी लगेगी-यह जो निश्चय हम लोग किया करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ केन. 2. 11
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