गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
बारहवां प्रकरण
परब्रह्म की कोई सीमा न होने पर भी उपनिषदों में उसकी उपासना की क्रम-क्रम से बढ़ती हुई सीढ़ियाँ बतलाने का यही कारण है; और जिस समाज में सभी स्थितप्रज्ञ हों, वहाँ क्षात्रधर्म की जरूरत न हो तो भी जगत के अन्यान्य समाजों की तत्कालीन स्थिति पर ध्यान दे करके ‘आत्मानं सततं रक्षेत’ के ढर्रे पर हमारे धर्मशास्त्र की चातुर्वरार्थ-व्यवस्था में क्षात्र धर्म का संग्रह किया गया है। यूनान के प्रसिद्ध तत्ववेता प्लेटो ने अपने ग्रन्थ में जिस पराकाष्टा की समाज व्यवस्था को उत्तम बतलाया है, उसमें भी निरन्तर के अभ्यास से युद्धकला में प्रवीण वर्ग को समाजरक्षक के नाते प्रमुखता दी है। इससे स्पष्ट ही देख पड़ेगा कि तत्वज्ञानी लोग परमावधि के शुद्ध और उच्च स्थिति के विचारों में ही डूबे क्यों न रहा करें, परन्तु वे तत्कालीन अपूर्णा समाज व्यवस्था का विचार करने से भी कभी नहीं चुकते। ऊपर की सब बातों का इस प्रकार विचार करने से ज्ञानी पुरुष के सम्बन्ध में यह सिद्ध होता है कि वह ब्रह्मात्मैक्य ज्ञान से अपनी बुद्धि को निर्विषय, शान्त और प्राणिमात्र में निवैंर तथा सम रखे; इस स्थिति को पा जाने से सामान्य अज्ञानी लोगों के विषय में उदासीन न रहे; स्वयं सारे संसारी कामों का त्याग कर यानी कर्म सन्यास आश्रम को स्वीकार करके इन लोगों की बुद्धि को न बिगाडे़; देश काल और परिस्थिति के अनुसार जिन्हें जो योग्य हो, उसी का उन्हें उपदेश देव; अपने निष्काम कर्तव्य आचरण से सद्व्यवहार का अधिकारानुसार प्रत्यक्ष नमूना दिखला [1]कर, सब को धीरे धीरे यथासम्भव शान्ति से किन्तु उत्साहपूर्वक उन्नति के मार्ग में लगावे; बस यही ज्ञानी पुरुष का सच्चा धर्म है। समय-समय पर अवतार लेकर भगवान भी यही काम किया करते हैं; और ज्ञानी पुरुष को भी यही आदर्श मान फल पर ध्यान न देते हुए इस जगत का अपना कर्त्तव्य शुद्ध अर्थात निष्काम बुद्धि से सदैव यथाशक्ति करते रहना चाहिये। गीताशास्त्र का सारांश यही है कि इस प्रकार के कर्त्तव्य पालन में यदि मृत्यु भी आ जावे तो बड़े आन्नद से उसे स्वीकार कर लेना चाहिये[2]- अपने कर्त्तव्य अर्थात धर्म को न छोड़ना चाहिये। इसे ही लोकसंग्रह अथवा कर्मयोग कहते हैं। न केवल वेदान्त ही, उसके आधार पर साथ ही साथ कर्म-अकर्म का ऊपर लिखा हुआ ज्ञान भी जब गीता में बतलाया गया, तभी तो पहले युद्ध छोड़कर भीख मांगने की तैयारी करने वाला अर्जुन आगे चलकर स्वधर्म के अनुसार युद्ध करने के लिये-सिर्फ इसीलिये नहीं कि भगवान कहते हैं, वरन् अपनी मर्जी से, प्रवृत हो गया। स्थितप्रज्ञ की साम्यबुद्धि का यही तत्त्व, कि जिसका अर्जुन को उपदेश हुआ है, कर्मयोगशास्त्र का मूल आधार है अत: इसी को प्रमाण मान, इसके आधार से हमने बतलाया है कि पराकाष्ठा की नीतिमत्ता की उपपत्ति क्योंकर लगती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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