गीता रहस्य -तिलक पृ. 393

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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बारहवां प्रकरण

उक्‍त श्‍लोक के पहले तीन चरणों में यही तत्‍व वर्णित हैं। ऐसे प्रश्‍न पर मनुष्‍य आत्‍मरक्षा के अपने श्रेष्‍ठ स्‍वस्‍व पर भी स्‍वेच्‍छा से पानी फेर दिया करता है, अत: ऐसे काम की नैतिक योग्‍यता भी सब से श्रेष्‍ठ समझी जाती है। तथापि बिना भूले, यह निश्‍चय कर देने के लिये कि ऐसे अवसर कब उत्‍पन्‍न होते हैं, निरा पाणिडत्‍य या तर्कशक्ति पूर्ण समर्थ नहीं है; इसलिये, धृतराष्‍ट्र के उल्‍लेखनीय कथानक से यह बात प्रगट होती है कि विचार करने वाले मनुष्‍य का अन्‍त:करण पहले से ही शुद्ध और सम रहना चाहिये। महाभारत में ही कहा है कि धृतराष्‍ट्र की बुद्धि इतनी मन्‍द न थी कि वे विदुर के उपदेश को समझ न सके, परन्‍तु पुत्र प्रेम उनकी बुद्धि को सम होने कहाँ देता था। कुबेर को जिस प्रकार लाख रूपये की कभी भी कमी नहीं पड़ती,उसी प्रकार जिसकी बुद्धि एक बार सम हो चुकी उसे कुलात्‍मैक्य, देशात्‍मैक्य या धर्मात्‍मैक्‍य आदि निम्‍न श्रेणी की एकताओं का कभी टोटा पड़ता ही नहीं है। ब्रह्मात्‍मैक्‍य में इन सब का अन्‍तर्भाव हो जाता है; फिर देशधर्म,कुलधर्म आदि संकुचित धर्मों का अथवा सर्वभूतहित के व्‍यापक धर्म का अर्थात इनमें से जिस जिसकी स्थिति के अनुसार अथवा आत्‍मरक्षा के निमित्त जिस समय में से जो धर्म श्रेयस्‍कर हो, उसको उसी धर्म का उपदेश करके धारणा-पोषण का काम साधु लोग करते हैं।

इसमें सन्‍देह नहीं कि मानव जाति की वर्तमान स्थिति में देशाभिमान ही मुख्‍य लक्षण हो बैठा है, और सुधरे हुए राष्‍ट्र भी इन विचारों और तैयारियों में अपने ज्ञान का, कुशलता का और द्रव्‍य का उपयोग किया करते हैं कि पास-पड़ौस के शत्रुदेशीय बहुत से लोगों को प्रसन्‍न पड़ने पर थोडे़ ही समय में हम क्‍योंकर जान से मार सकेंगें। किन्‍तु स्‍पेन्‍सर और कोन्‍ट प्रभृति पंडितों ने अपने ग्रन्‍थों में स्‍पष्‍ट रीति से कह दिया है कि केवल इसी एक कारण से देशाभिमान को ही नितिदृष्टि मानव जाति का परम साध्‍य मान नहीं सकते; और जो अपेक्षा इन लोगों के प्रतिपादित तत्त्व पर हो नहीं सकता, वही आपेक्षा हम नहीं समझते कि अध्‍यात्म-दृष्टया प्राप्‍त होने वाले सर्वभूतात्‍मैक्‍य रूप तत्त्व पर ही कैसे हो सकता है। छोटे बच्‍चे के कपड़े उसके शरीर के ही अनुसार बहुत हुआ तो जरा कुशादह अर्थात बाढ़ के लिए गुंजायश रख कर जैसे ब्‍योंताना पड़ते है, वैसे ही सर्वभूतात्‍मैक्‍यबुद्धि की भी बात है। समाज हो या व्‍यक्ति, सर्वभूतात्‍मैक्‍य बुद्धि से उसके आगे जो साध्‍य रखना है वह उसके अधिकार के अनुरूप अथवा उसकी अपेक्षा जरा सा और आगे का, होगा तभी वह उसको श्रेयस्‍कर हो सकता है; उसके सामर्थ्‍य की अपेक्षा बहुत अच्‍छी बात उसको एकदम करने के लिये बतलाई जाये, तो इससे उसका कल्‍याण कभी भी नहीं हो सकता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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