गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
बारहवां प्रकरण
इसी से शांकरभाष्य तथा अन्य टीकाओं में भी कहा है कि, इस श्लोक में पूरे गीताशास्त्र का निचोड़ आ गया है। गीता में यह कहीं भी नहीं बतलाया कि बुद्धि को निर्वैर करने के लिये, या उसके निर्वैर हो चुकने पर भी सभी प्रकार के कर्म छोड़ देना चाहिये। इस प्रकार प्रतिकार का कर्म निर्वैरत्व और पमेश्वरार्पण बुद्धि से करने पर, कर्त्ता को उसका कोई भी पाप या दोष तो लगता ही नहीं, उलटा, प्रतिकार का काम हो चुकने पर जिन दुष्टों का प्रतिकार किया गया है, उन्हीं का आत्मौपम्य–दृष्टि से कल्याण सोचने की बुद्धि भी विलीन नहीं हो जाती। एक उदाहरण लीजिये, दुष्ट कर्म करने के कारण रावण को, निर्वैर और निष्पाप रामचन्द्र ने मार तो डाला; पर उसकी उत्तर-क्रिया करने में जब विभीषण हिचकने लगा, तब रामचन्द्र ने उसको समझाया कि- मरणान्तानि वैराणि निवृतं न: प्रयोजनम्। ‘’( रावण के मन का ) वैर मौत के साथ ही चुक गया। हमारा ( दुष्टों के नाश करने का ) काम हो चुका। अब यह जैसा तेरा ( भाई ) है, वैसा मेरा भी है। इसीलये इसका अग्नि-संस्कार कर’’[1]। रामायण का यह तत्व भागवत्[2] में भी एक स्थान पर बतलाया गया है और अन्यान्य पुराणों में जो ये कथाएं हैं, कि भगवान् ने जिन दुष्टों का संहार किया, उन्हीं को फिर दयालु हो कर सद्गति दे डाली, उनका रहस्य भी यही है। इन्हीं सब विचारों को मन में ला कर श्रीसमर्थ ने कहा है कि ‘’उद्धत के लिये उद्धत होना चाहिये;’’ और महाभारत में भीष्म ने परशुराम से कहा है- यो यथा वर्तते यस्मिन तस्मिन्नेवं प्रवर्तयन्। ‘’अपने साथ जो जैसा वर्ताव करता है, उसके साथ वैसे ही बर्तने से न तो अधम ( अनीति ) होता है और न अकल्याण’’[3]। फिर आगे चलकर शान्तिपर्व के सत्यानृत-अध्याय में वही उपेदश युधिष्ठिर को किया है- यस्मिन् यथा वर्तते यो मनुष्य: तस्मिस्तथा वर्त्तितव्यं स धर्म:। "अपने साथ जो जैसा बर्तता है, उसके साथ वैसा ही बर्ताव करना धर्मनीति है; मायावी पुरुष के साथ मायावीपन और साधु पुरुष के साथ साधुता का वयवहार करना चाहिये ‘’[4]। ऐसे ही ऋग्वेद में इन्द्र को उसके मायवीपन का दोष न दे कर उसकी स्तुति ही की गई है कि- ‘त्वं मायाभिरनवद्य मायिनं......... वृत्रं अर्दय:।‘’[5]- हे निष्पाप इन्द्र! मायावी वृत्र को तू ने माया से ही मारा है। और भारवि कवि ने अपने किरातार्जुनीय काव्य में भी ऋग्वेद के तत्व का ही अनुवाद इस प्रकार किया है– व्रजन्ति ते मूढ़धिय: पराभवं भवन्ति मायाविषु ये न मायिन:।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वाल्मीकिरा. 6. 109. 25
- ↑ 8. 19. 13
- ↑ मभा. उद्यो. 179. 30
- ↑ मभा. शां. 109. 29 और अद्यो. 36. 7
- ↑ ऋ. 10. 147. 2; 1. 80. 7
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