गीता रहस्य -तिलक पृ. 382

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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बारहवां प्रकरण

इस पर भी कुछ लोग कहते हैं कि, आत्‍मौपम्‍य भाव से ‘’वसुधैव कुटुम्‍बकम्‘’ रूपी वेदान्‍त और व्‍यापक दृष्टि हो जाने पर हम सिर्फ उन सद्गुणों को ही न खो बैठेंगे, कि जिन देशाभिमान, कुलाभिमान और धर्माभिमान आदि सद्गुणों से कुछ वंश अथवा राष्‍ट्र आज कल उन्‍नत अवस्‍था में हैं, प्रत्‍युत यदि कोई हमें मारने या कष्‍ट देने आवेगा तो, ‘’निर्वैर: सर्वभूतेषु’’[1] गीता के इस वाक्‍यानुसार, उसको दुष्‍टबुद्धि से लौट कर न मारना हमारा धर्म हो जायगा[2], अत: दुष्‍टों का प्रतीकार न होगा और इस कारण उनके बुरे कामों मे साधु पुरुषों की जान जोखिम में पड़ जावेगी। इस प्रकार दुष्‍टों का दब-दबा हो जाने से, पूरे समाज अथवा समूचे राष्‍ट्र का इससे नाश भी हो जावेगा। महाभारत में स्‍पष्‍ट ही कहा है कि ‘’न पापे प्रतिपाप: स्‍यात्‍साधुत्‍वे सदा भवेत् ‘’[3]-दुष्‍टों के साथ दुष्‍ट न हो जावे, साधुता से बर्ते; क्‍योंकि दुष्‍टता से अथवा वैर भँजाने से, वैर कभी नष्‍ट नहीं होता-‘न चापि वैरं वैरेण केशव व्‍युपशाम्‍यति’। इसके विपरीत जिसका हम पराजय करते हैं वह, स्‍वभाव से ही दुष्‍ट होने के कारण पराजित होने पर और अधिक उपद्रव मचाता रहता है तथा वह फिर बदला लेने का मौक़ा खेजता रहता है-जयो वैरं प्रसृजाति,’’ अतएव शान्ति से ही दुष्‍टों का निवारण कर देना चाहिये[4]

भारत का यही श्‍लोक बौद्ध ग्रन्थों में है[5], और ऐसा ही ईसा ने भी इसी तत्त्व का अनुकरण इस प्रकार किया है ‘’तू अपने शत्रुओं पर प्रीति कर’’[6]. और ‘’कोई एक कनपटी में मारे तो तू दूसरी भी आगे कर दे’’[7]। ईसामसीह से पहले के चीनी तत्‍वज्ञ ला-ओ-त्‍से का भी ऐसा ही कथन है और भारत की सन्‍त-मण्‍डली में तो ऐसे साधुओं के इस प्राकर आचरण करने की बहुतेरी कथाएं भी हैं। क्षमा अथवा शान्ति की पराकष्‍ठा का उत्‍कर्ष दिखानेवाले इन उदहरणों की पुनीत योग्‍यता को घटाने का हमारा बिलकुल इरादा नहीं है। इस में कोई सन्‍देह नहीं कि सत्‍य के समान ही यह क्षमा-धर्म भी अन्‍त में अर्थात् समाज की पूर्ण अवस्‍था में अपवाद रहित और नित्‍य रूप से बना रहेगा। और बहुत क्‍या कहें, समाज की वर्तमान अपूर्ण अवस्‍था में भी अनेक अवसरों पर देखा जाता है कि जो काम शान्ति से हो जाता है, वह क्रोध से नहीं होता। जब अर्जुन देखने लगा कि दुष्‍ट दुर्योधन की सहायता करने के लिये कौन कौन योद्धा आये हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी. 11. 55
  2. देखो धम्‍मपद 338
  3. वन 206. 44
  4. मभा. उद्यो. 71. 56 और 63
  5. देखो ध्‍म्‍मपद 5 और 201; महावाग 10. 2 एवं 3
  6. मेथ्‍यु. 5. 44
  7. मेथ्‍यू. 5. 39;ल्‍यू. 6. 29

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प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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