गीता रहस्य -तिलक पृ. 381

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

Prev.png
बारहवां प्रकरण

उन पर प्रीति रखो, उनसे ममता न छोड़ो, उनके साथ न्‍याय और समता का बर्ताव करो, किसी से झूठ न बोलो, अधिकांश लोगों के अधिक कल्‍याण करने की बुद्धि मन में रखो; अथवा यह समझ कर भाई-चारे से बर्ताव करो कि हम सब एक ही पिता की सन्‍तान हैं। प्रत्‍येक मनुष्‍य को स्‍वभाव से ही यह सहज ही मालूम रहता है कि मेरा सुख-दु:ख और कल्‍याण किस में है; और सांसारिक व्‍यवहार करने में गृहस्‍थी की व्यवस्‍था से इस बात का अनुभव भी उसको होता रहता है कि, ‘’आत्‍मा वै पुत्रनामासि’’ अथवा ‘’अर्धे भार्यां शरीरस्‍य‘’ का भाव समझ कर अपने ही समान अपने स्‍त्री पुत्रों पर भी हमें प्रेम करना चाहिये। किन्‍तु घरवालों पर प्रेम करना आत्‍मौपम्‍य-बुद्धि सीखने का पहला ही पाठ है; सदैव इसी में न लिपटे रह कर घरवालों के बाद इष्‍ट-मित्रों, फिर आप्‍तों, गोत्रजों, ग्रामवासियों, जाति-भाइयों, धर्म-बन्‍धुओं और अन्‍त में सब मनुष्‍यों और अन्‍त में सब मनुष्‍यों अथवा प्राणिमात्र के विषय में आत्‍मौपम्‍य-बुद्धि का उपयोग करना चाहिये; इस प्रकार प्रत्‍येक मनुष्‍य को अपनी आत्‍मौपम्‍य-बुद्धि अधिक अधिक व्‍यापक बना कर पहचानना चाहिये कि जो आत्‍मा हम में है वही सब प्राणियों में है, और अन्‍त में इसी के अनुसार बर्ताव भी करना चाहिये-यही ज्ञान की तथा आश्रम-व्‍यवस्‍था की परमावधि अथवा मनुष्‍यमात्र के साध्‍य की सीमा है।

आत्‍मौपम्‍य-बुद्धिरूप सूत्र का अन्तिम और व्‍यापक अर्थ यही है। फिर यह आप ही सिद्ध हो जाता है कि परमा‍वधि की स्थिति को प्राप्‍त कर लेने की योग्‍यता जिन-जिन यज्ञ-दान आदि कर्मों से बढ़ती जाती है, वे सभी कर्म चित्‍त-शुद्धिकारक, धर्म्‍य और अतएव गृहस्‍थाश्रम में कर्तव्‍य है। यह पहले ही कह आये हैं कि चित्‍त शुद्धि का ठीक अर्थ स्‍वार्थबुद्धि का छूट जाना और ब्रह्मात्‍मैक्‍य को पहचानना है एवं इसी लिये स्‍मृतिकारों ने गृहस्‍थाश्रम के कर्म विहित माने हैं। याज्ञवल्‍क्‍य ने मैत्रेयी को जो ‘’आत्‍मा व अरे द्रष्‍टव्‍य: आदि उपदेश किया है, उसका मर्म भी यही है। अध्‍यात्‍मज्ञान की नींव पर रचा हुआ कर्मयोगशास्‍त्र सब से कहता है कि, ‘’आत्‍मा वै पुत्रनामसि‘’ में ही आत्‍मा की व्‍यापकता को संकुचित न करके उसकी इस स्‍वाभाविक व्‍याप्ति को पहचानो कि ‘’लोको वै अयमातमा’’; और इस समझ से बर्ताव किया करो कि ‘’उदाचरितानां तु वसुधैव कुटुम्‍बकम्’’–यह सारी पृथ्‍वी ही बड़े लोगों की घर-गृहस्‍थी है, प्राणिमात्र ही उनका परिवार है। हमारा विश्‍वास है कि, इस विषय में हमारा कर्मयोगशास्‍त्र अन्‍यान्‍य देशों के पुराने अथवा नये किसी भी कर्म शास्‍त्र से होने वाला नहीं है; यही नहीं, उन सब को अपने पेट में रख कर परमेश्‍वर के समान दश अगुंल’ बचा रहेगा।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः