गीता रहस्य -तिलक पृ. 378

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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बारहवां प्रकरण

प्रत्‍याख्‍याने च दाने च सुखदु:खे प्रियाप्रिये।
आत्‍मौपम्‍येन पुरुष: प्रमाणमधिग‍च्‍छति।।
यथापर: प्रकमते परेषु तथा परे प्रक्रमन्‍तेऽपरस्मिन्।
तथैव तेषूपमा जीवलोके यथा धर्मो निपुणेनोपदिष्‍ट :।।

‘’सुख या दु:ख प्रिय या अप्रिय, दान अथवा निषेध-इन सब बातों का अनुमान दूसरों के विषय में वैसा ही करें, जैसा कि अपने विषय में जान पड़े। दूसरों के साथ मनुष्‍य जैसा बर्ताव करता है, दूसरे भी उसके साथ वैसा ही व्‍यवहार करते हैं अतएव यही उपमा लेकर इस जगत् में आत्‍मौपम्‍य की दृष्टि से बर्ताव करने को सयाने लोगों ने धर्म कहा है‘’[1]। यह ‘’ न तत्‍परस्‍य संदष्‍यात् प्रतिकूलं यदात्‍मन: ‘’ श्‍लोक विदुरनीति[2] में भी है; और आगे शान्ति पर्व[3] में विदुर ने फिर यही तत्त्व युधिष्ठिर को बतलाया है। परन्‍तु आत्‍मौपम्‍य नियम का यह एक भाग हुआ कि दूसरों को दु:ख न दो, क्‍योंकि जो तुम्‍हें दुखदायी है वही और लोगों को भी दु:खदायी होता है अब इस पर कदाचित किसी को यह दीर्घशंका हो कि, इससे यह निश्‍चयात्‍मक अनुमान कहाँ निकलता है कि तुम्‍हें जो सुखदायक जँचे, वही औरों को भी सुखदायक है और इसलिये ऐसे ढंग का बर्ताव करो जो औरों को भी सुखदायक हो? इस शंका के निरसनार्थ भीष्‍म ने युधिष्ठिर को धर्म के लक्षण बतलाते समय इससे भी अधिक खुलासा करके इस नियम के दानों मार्गों का स्‍पष्‍ट उल्‍लेख कर दिया है –

यदन्‍यैर्विहितं नेच्‍छेदात्‍मन: कर्म पूरुष:।
न तत्‍परेषु कर्वीत जानन्नप्रियमात्‍मन:।।
जीवितं य: स्‍वयं चेच्‍छेत्कर्थ सोऽन्‍यं प्रघातयेत्।
यद्यदात्‍मनि चेच्‍छेत तत्‍परस्‍यापि चिन्‍तयेत्।।

अर्थात् ‘’हम दूसरों से अपने साथ जैसे बर्ताव का किया जाना पसन्‍द करते-यानी अपनी पसन्‍द को समझ कर-वैसा बर्ताव हमें भी दूसरों के साथ न करना चाहिये। जो स्‍वयं जीवित रहने की इच्‍छा रखता है, वह दूसरों को कैसे मारेगा? ऐसी इच्‍छा रखे कि जो हम चाहते हैं, वही और लोग भी चाहते हैं’’[4]। और दूसरे स्‍थान पर इसी नियम को बतलाने में इन ‘अनुकूल’ अथवा ‘प्रतिकूल’ विशेषणों का प्रयोग न करके, किसी भी प्रकार के आचरण के विषय में सामन्‍यत: विदुर ने कहा– तस्‍माद्धर्मप्रधानेन भवितव्‍यं यतात्‍मना। तथा च सर्वभूतेषु वर्तितव्‍यं यथात्‍मनि।। ‘’इन्द्रियनिग्रह करके धर्म से बर्तना चाहिये; और अपने समान ही सब प्राणियों से बर्ताव करे’’[5]। क्‍योंकि शुकानुप्रश्‍न में व्‍यास कहते हैं–

यावानात्‍मनि वेदात्‍मा तावानात्‍मा परात्‍मनि।
य एवं सततं वेद सोऽमृतत्‍वाय कल्‍पते।।

‘’जो सदैव यह जानता है कि हमारे शरीर में जितना आत्‍मा है उतना ही दूसरे के शरीर में भी है. वही अमृतत्‍व अर्थात् मोक्ष प्राप्‍त कर लेने में समर्थ होता है ‘’[6]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अनु. 113. 9. 10
  2. उद्यो. 38. 72
  3. 167. 9
  4. शां 258. 19, 21
  5. शां. 167. 9
  6. मभा. शां. 238. 22

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प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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