गीता रहस्य -तिलक पृ. 374

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

Prev.png
बारहवां प्रकरण

प्राणिमात्र में समबुद्धि होते ही परोपकार करना तो देह का स्‍वभाव ही बन जाता है; और ऐसा हो जाने पर परमज्ञानी एवं परम शु‍द्ध बुद्धि वाले मनुष्‍य के हाथ से कुकर्म होना उतना ही सम्‍भव है जितना कि अमृत से मृत्‍यु हो जाना कर्म के बाह्य फल का विचार करने के लिये जब गीता कहती है, तब उसका यह अर्थ नहीं है कि जो दिल में आ जाय सो किया करो; प्रत्‍युत गीता कहती है कि जब बाहरी परोपकार करने का ढोंग पाखण्‍ड से या लोभ से कोई भी कर सकता है, किन्‍तु प्राणिमात्र में एक आत्‍मा को पहचानने से बुद्धि में जो स्थिरता और समता आ जाती है, उसका स्‍वांग कोई नहीं बन सकता; तब किसी भी काम की योग्‍यता अयोग्‍यता का विचार करने में कर्म के बाह्य परिणाम की अपेक्षा कर्त्‍ता की बुद्धि पर ही योग्‍य दृष्टि रखनी चाहिये। गीता का संक्षेप में यह सिद्धान्‍त कहा जा सकता है कि कोरे जड़ कर्म में ही नीतिमत्ता नहीं है, किन्‍तु कर्त्‍ता की बुद्धि पर वह सर्वथा अवलम्बित रहती है। आगे गीता[1] में ही कहा है कि इस आध्‍यात्मिक तत्‍व के ठीक सिद्धान्‍त को न समझकर यदि कोई मनमानी करने लगे तो उस पुरुष को राक्षस या तामसी बुद्धिवाला कहना चाहिये। एक बार समबुद्धि हो जाने से फिर उस पुरुष को कर्तव्‍य-अ‍कर्तव्‍य का और अधिक उपदेश नहीं करना पड़ता; इसी तत्‍व पर ध्‍यान दे कर साधु तुकाराम ने शिवाजी महाराज को जो यह उपदेश किया कि ‘’इसका एक ही कल्‍याणकारक अर्थ यह है कि प्राणिमात्र में एक आत्‍मा को देखो,‘’ इसमें भी भगवद्गीता के अनुसार कर्मयोग का एक ही तत्‍व बतलाया गया है।

यहाँ फिर भी कह देना उचित है कि यद्यपि साम्‍यबुद्धि ही सदाचार का बीज हो, तथापि इससे यह भी अनुमान न करना चाहिये कि जब तक इस प्रकार की पूर्ण शुद्धबुद्धि न हो जावे तब तक कर्म करने वाला चुपचाप हाथ पर हाथ धरे बैठा रहे। स्थितप्रज्ञ के समान बुद्धि कर लेना तो परम ध्‍येय है; परन्‍तु गीता के आरम्‍भ[2] में ही यह उपदेश किया गया है कि इस परम ध्‍येय के पूर्णतया सिद्ध होने तक प्रतीक्षा न करके, जितना हो सके उतना ही निष्‍काम बुद्धि से प्रत्‍येक मनुष्‍य अपना कर्म करता रहे; इसी से बुद्धि अधिक अधिक शुद्ध होती चली जायेगी और अन्‍त में पूर्ण सिद्धि हो जायेगी ऐसा आग्रह करके समय को मुफ्त न गवां दे कि जब तक कर्म करूँगा ही नहीं। ‘सर्वभूतहित’ अथवा ‘अधिकांश लोगों के अधिक कल्‍याण ‘वाला नीतितत्‍व केवल बाह्य कर्म को उपयुक्‍त होने के कारण शाखाग्रही और कृपण है; परन्‍तु यह प्राणिमात्र में एक आत्‍मा’ वाली स्थितप्रज्ञ की ‘साम्‍य-बुद्धि’ मूलग्राही है, और इसी को नीति-निर्णय के काम में श्रेष्‍ठ मानना चाहिये। यद्यपि इस प्रकार यह बात सिद्ध हो चुकी, तथापि इस पर कई एकों के आक्षेप हैं कि इस सिद्धान्‍त से व्‍यावहारिक बर्ताव की उपपत्ति ठीक ठीक नहीं लगती। ये आक्षेप प्राय: संन्‍यास मार्गी स्थितप्रज्ञ के संसारी व्‍यवहार को देख कर ही इन लोगों को सूझे हैं।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 18. 25
  2. 2. 40

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः