गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
बारहवां प्रकरण
यही न्याय स्थितप्रज्ञ के व्यवहार के लिये उपयुक्त करने से सिद्ध होता है कि स्थितप्रज्ञ जिस साम्य बुद्धि से अपनी बराबरीवालों, छोटों और सर्वसाधारण के साथ बर्तता है, वही साम्य बुद्धि उसके आचरण का मुख्य तत्व है और इस आचरण से जो प्राणि मात्र का मंगल होता है, वह इस साम्यबुद्धि का निरा ऊपरी और आनुषगिंक परिणाम है। ऐसे ही जिसकी बुद्धि पूर्ण अवस्था में पहुँच गई हो, वह लोगों को केवल आधिभौतिक सुख प्राप्त करा देने के लिये ही अपने सब व्यवहार न करेगा। यह ठीक है कि वह दूसरों का नुकसान न करेगा; पर यह उसका मुख्य ध्येय नहीं है। स्थितप्रज्ञ ऐसे प्रयत्न किया करता है जिनसे समाज के लोगों की बुद्धि अधिक अधिक शुद्ध होती जावे और वे लोग अपने समान ही अन्त में आध्यात्मिक पूर्ण अवस्था में जा पहुँचे। मनुष्य के कर्त्तव्यों में यही श्रेष्ठ और सात्त्विक कर्त्तव्य है। केवल आधिभौतिक सुख-वृद्धि के प्रयत्नों को हम गौण अथवा राजस समझते हैं। गीता का सिद्धान्त है कि कर्म-अकर्म के निर्णयार्थ कर्म के बाह्य फल पर ध्यान न दे कर कर्त्ता की शुद्ध-बुद्धि को ही प्रधानता देनी चाहिये। इस इस पर कुछ लोगों का यह तर्क-पूर्ण मिथ्या आक्षेप है कि यदि कर्म-फल को न देख कर केवल शुद्ध-बुद्धि का ही इस प्रकार विचार करें तो मानना होगा कि शुद्ध-बुद्धिवाला मनुष्य कोई भी बुरा काम कर सकता है! और तब तो वह सभी बुरे कर्म करने के लिये स्वतन्त्र हो जायेगा! इस आक्षेप को हमने अपनी कल्पना के बल से नहीं धर घसीटा है; किन्तु गीता-धर्म पर कुछ पादड़ी बहादुरों के किये हुए इस ढँग के आक्षेप हमारे देखने में भी आये हैं[1]। किन्तु हमें यह कहने में कोई भी दिक्क़त नहीं जान पड़ती कि ये आरोप आक्षेप बिलकुल मूर्खता के अथवा दुराग्रह के हैं। और यह कहने मे भी कोई हानि नहीं है कि अफ्रि़का का कोई काला-कलूटा जगंली मनुष्य सुधरे हुए राष्ट्र के नीतितत्वों का आकलन करने में जिस प्रकार अपात्र और असमर्थ होता है, उसी प्रकार इन पादड़ी भले मानसों की बुद्धि वैदिक धर्म के स्थित प्रज्ञ की अध्यात्मिक पूर्णावस्था का निरा आकलन करने में भी स्वधर्म के व्यर्थ दुराग्रह अथवा और कुछ ओछे एवं दुष्ट मनोविकारों से असमर्थ हो गई है। उन्नीसवीं सदी के प्रसिद्ध जर्मन तत्वज्ञानी कान्ट ने अपने नीतिशास्त्र-विषयक ग्रन्थ में अनेक स्थलों पर लिखा है कि कर्म के बहारी फल को न देख कर नीति के निर्णायार्थ कर्ता की बुद्धि का ही विचार करना उचित है [2]। किन्तु हमने नहीं देखा, कि कान्ट पर किसी ने ऐसा आक्षेप किया हो। फिर भी वह गीतावाले नीतितत्त्व को ही तपयुक्त कैसे होगा? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कलकत्ते के एक पादड़ी की ऐसी करतूत का उत्तर मिस्टर ब्रक्स ने दिया है जो कि, उनके Kurukshetra ( कुरुक्षेत्र ) नामक छपे हुए निबन्ध के अन्त में है। उसे देखिये, ( Kurukshetra, Vyasashrma, Adyar, Madras, pp. 48-52 ).
- ↑ The second proposition is: That an action done from duty derives its moral worth, not from the purpose which is to be attained by it, but from the maxim by which it is determined.”…The moral worth of an action “cannot lie anywhere but in the principle of the will, without regard to the ends which can be attained by action.” Kant’s Metaphysic of Morals (trans. By Abbott in Kant’s Theory of Ethics, p. 16. The italios are other’s and not our own). And again “ When the question is of moral worth, it is not with the actions which we see that we are concerned, but with those inward principles of them which we do-not see. P. 24, I bid
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