गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
बारहवां प्रकरण
इसी व्यवसायात्मक-बुद्धि को सदसद्विवेचन-शक्ति के रूप में स्वतन्त्र देवता मान लेने से यह अधिदैविक मार्ग हो जाता है। परन्तु यह बुद्धि स्वतन्त्र देवता नहीं है किन्तु आत्मा का एक अन्तरिन्द्रिय है; अत: बुद्धि को प्रधानता न दे कर, आत्मा को प्रधान मान करके वासना की शुद्धता का विचार करने से यह नीति के निर्णय का आध्यात्मिक मार्ग हो जाता है। परन्तु हमारे शास्त्र कारों का मत है कि इन सब मार्गों में आध्यात्मिक मार्ग श्रेष्ठ है; और प्रसिद्ध जर्मन तत्त्ववेत्ता कान्ट ने यद्यपि ब्रह्मात्मैक्य का सिद्धान्त स्पष्ट रूप से नहीं दिया है, तथापि उसने अपने नीतिशास्त्र के विवेचन का आरम्भ शुद्धबुद्धि से अर्थात् एक प्रकार से अध्यात्मदृष्टि से ही किया है एवं उसने इसकी उपपत्ति भी दी है कि ऐसा क्यों करना चाहिये’’ [1]। ग्रीन का अभिप्राय ऐसा ही है। परन्तु इस विषय की पूरी पूरी छानबीन इस छोटे से ग्रन्थ में नहीं की जा सकती। हम चौथे प्रकरण में दो एक उदाहरण दे कर स्पष्ट दिखला चुके हैं कि नीतिमत्ता का पूरा निर्णय करने के लिये कर्म के बाहरी फल की अपेक्षा कर्त्ता की शुद्ध बुद्धि पर विशेष लक्ष देना पड़ता है; और इस सम्बन्ध का अधिक विचार आगे, पन्द्रहवें प्रकरण में पाश्चात्य और पौरस्त्य नीति-मार्गों की तुलना करते समय, किया जायेगा। अभी इतना ही कहते हैं कि कोई भी कर्म तभी होता है जबकि पहले उस कर्म के करने की बुद्धि उत्पन्न हो, इसलिये कर्म की योग्यता-अयोग्यता का विचार भी सभी अंशों में बुद्धि की शुद्धता-अशुद्धता के पर ही अवलम्बित रहता है। बुद्धि बुरी होगी, तो कर्म भी बुरा होगा; परन्तु केवल बाह्य कर्म के बुरे होने से ही यह अनु-मान नहीं किया जा सकता कि बुद्धि भी बुरी होनी ही चाहिये। क्योंकि भूल से, कुछ का कुछ समझ लेने से, अथवा अज्ञान से वैसा कर्म हो सकता है, और फिर उसे नीति शास्त्र की दृष्टि से बुरा नहीं कह सकते। ‘अधिकांश लोगों के अधिक सुख’-वाला नीतितत्त्व केवल बाहरी परिणामों के लिये ही उपयोगी होता है; और जबकि इन सुख-दु:खात्मक बाहरी परिणाम को निश्चित रीति से मापने का बहारी साधन अब तक नहीं मिला है, तब नीतिमत्ता की इस कसौटी से सदैव यथार्थ निर्णय होने का भरोसा भी नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार मनुष्य कितना ही सयाना क्यों न हो जाय, यदि उसकी बुद्धि शुद्ध न हो गई हो तो यह नहीं कह सकते कि वह प्रत्येक अवसर पर धर्म से ही बर्तेगा। विशेषत: जहाँ उसका स्वार्थ आ डटा, वहाँ तो फिर कहना ही क्या है,-स्वार्थे सर्वे विमुह्यन्ति येऽपि धर्मविदो जना:[2]। सारांश, मनुष्य कितन ही बड़ा ज्ञानी, धर्मवेत्ता और सयाना क्यों न हो किन्तु, यदि उसकी बुद्धि प्राणिमात्र में सम न हो गई हो तो यह नहीं कह सकते कि उसका कर्म सदैव शुद्ध अथवा नीति की दृष्टि से निर्दोष ही रहेगा। अतएव हमारे शास्त्रकारों ने निश्चित कर दिया है कि नीति का विचार करने में कर्म के बाह्य फल की अपेक्षा, कर्त्ता की बुद्धि का ही प्रधानता से विचार करना चाहिये; साम्यबुद्धि बर्ताव का चोखा बीज है। यही भावार्थ भगवद्गीता के इस उपदेश में भी है :- दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्वियोगाद्धनञ्जय। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ See Kant’s Theory of Ethics, trans. By Abbott, 6th Ed, especially Metaphysics of Moral therein.
- ↑ मभा. वि. 51. 4
- ↑ इस श्लोक का सरल अर्थ यह है,-‘’हे धनञ्जय! ( सम- )बुद्धि के योग की अपेक्षा ( कोरा ) कर्म बिलकुल ही निकृष्ट है। ( अतएव, सम- ) बुद्धि का ही आश्रय कर। फल पर दृष्टि जमा कर कर्म करने वाले ( पुरुष ) कृपण अर्थात् ओछे दर्जे के हैं।’’
संबंधित लेख
प्रकरण | नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज