गीता रहस्य -तिलक पृ. 370

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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बारहवां प्रकरण

धर्म अधर्म के नियम इसलिये रचे गये हैं। कि लोकव्‍यवहार चले और दोनों लोकों मे कल्‍याण हो, इत्‍यादि। इसी प्रकार कहा है कि धर्म-अधर्म संशय के समय ज्ञानी पुरुष को भी– लोकयात्रा च द्रष्‍टव्‍या धर्मश्चात्‍महितानि च।‘’लोकव्‍यवहार, नीतिधर्म और अपना कल्‍याण-इन बाहरी बातों का तारतम्‍य से विचार करके’’[1] फिर जो कुछ करना हो, उसका निश्‍चय करना चाहिये; और वनपर्व में राजा शिबि ने धर्म अधर्म के निर्णयार्थ इसी युक्ति का उपयोग किया है[2]। इन वचनों से प्रगट होता है कि समाज का उत्‍कर्ष ही स्थितप्रज्ञ के व्‍यवहार की’ बाह्य नीति होती है; और यदि यह ठीक है तो आगे सहज ही प्रश्‍न होता है कि आधिभौतिक वादियों के इस अधिकांश लोगों के अधिक सुख अथवा (सुख शब्‍द को व्‍यापक करके ) हित या कल्‍याणवाले नीतित्त्व को अध्‍यात्‍म-वादी भी क्‍यों नहीं स्‍वीकार कर लेते? चौथे प्रकरण में हमने दिखला दिया है कि, इस ‘अधिकांश लोगों के अधिक सुख’ सूत्र में बुद्धि के आत्‍मप्रसाद से होने वाले सुख का अथवा उन्‍नति का और पारलौकि कल्‍याण का अन्‍तर्भाव नहीं होता-इसमें यह बड़ा भारी दोष है। किन्‍तु ‘सुख’ शब्‍द का अर्थ और भी अधिक व्‍यापक करके यह दोष अनेक अंशों में निकाल डाला जा सकेगा; और नीति-धर्म की नित्‍यता के सम्‍बध में ऊपर दी हुई आध्‍यात्मिक उपपत्ति भी कुछ लोगों को विशेष महत्‍व की न जँचेगी।

इसलिये नीतिशास्‍त्र के आध्‍यात्मिक और आधिभौतिक मार्ग में जो महत्‍व का भेद है, उसका यहाँ और थोड़ा सा खुलासा फिर कर देना आवश्‍यक है। नीति की दृष्टि से किसी कर्म की योग्‍यता, अथवा अयोग्‍यता का विचार दो प्रकार से किया जाता है:-(1) उस कर्म का केवल बाह्य फल देखकर अर्थात् यह देख करके कि उसका दृश्‍य परिणाम जगत् पर क्‍या हुआ है या होगा; और (2) यह देख कर कि उस कर्म के करने वाले की बुद्धि अर्थात् वासना कैसी थी। पहले को आधिभौतिक मार्ग कहते हैं दूसरे में फिर दो पक्ष होते हैं और इन दोनों के पृथक नाम है। ये सिद्धान्‍त पिछले प्रकरणों में बतलाये जा चुके हैं। कि, शुद्ध कर्म को शुद्ध रखने के लिये व्‍यवसायत्‍क अर्थात् कार्य का निर्णय करने वाली बुद्धि भी स्थिर, सम और शुद्ध रहनी चाहिये। इन सिद्धान्‍तों के अनुसार किसी के भी कर्मों की शुद्धता जांचने के लिये देखना पड़ता है कि उसकी वासनात्‍मक-बुद्धि शुद्ध है या नहीं, और वासनात्‍मक-बुद्धि की शुद्धता जांचने लगें तो अन्‍त में देखना ही पड़ता है कि व्‍यवसायात्‍मक बुद्धि शुद्ध है या अशुद्ध। सारांश, कर्त्‍ता की बुद्धि अर्थात् वासना की शुद्धता का निर्णय, अन्‍त में व्‍यवसायत्‍मक बुद्धि की शुद्धता से ही करना पड़ता है[3]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अनु. 37.16; वन. 206. 90
  2. देखो वन. 131.11 और 12
  3. गी. 2. 41

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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