|
बारहवां प्रकरण
जब तक किसी बात के परमावधि के शुद्ध स्वरूप का निश्चय पहले न कर लिया जावे तब तक व्यवहार में देख पड़नेवाली उस बात की अनेक सूरतों में सुधार करना अथवा सार असार का विचार करके अन्त में उसके तारतम्य को पहचान लेना भी सम्भव नहीं है; और यही कारण है जो शराफ़ पहले ही निर्णय करता है कि 100 टञ्च का सोना कौन है। दिशा-प्रदर्शक ध्रुवमत्स्य यन्त्र अथवा ध्रुव नक्षत्र की ओर दुर्लक्ष्य कर अपार महोदधि की लहरों और वायु के ही तारतम्य को देख कर जहाज़ के खलासी बारबार अपने जहाज़ की पतवार घुमाने लगें तो उनकी जो स्थिति होगी, वही स्थिति नीति-नियमों के परमावधि के स्वरूप पर ध्यान न दे कर केवल देश-काल के अनुसार बर्तनेवाले मनुष्यों की होनी चाहिये। अतएव यदि निरी आधिभौतिक-दृष्टि से ही विचार करें तो भी यह पहले अवश्य निश्चित कर लेना पड़ता है कि धुव जैसा अटल और नित्य नीति-तत्व कौन सा है; और इस आवश्यकता को एक बार मान लेने से ही समूचा आधिभौतिक पक्ष लँगड़ा हो जाता है। क्योंकि सुख दुख आदि सभी विषयोपभोग नाम-रूपात्मक हैं अतएव ये अनित्य और विनाशवान् माया की ही सीमा में रह जाते हैं; इसलिये केवल इन्हीं बाह्य प्रमाणों के आधार से सिद्ध होने वाला कोई भी नीति-नियम नित्य नहीं हो सकता। आधिभौतिक ब्राह्य सुख-दु:ख की कल्पना जैसी जैसी बदलती जावेगी, वैसे ही वैसे उसकी बुनियाद पर रचे हुए नीति-धर्मों को भी बदलते रहना चाहिये।
अत: नित्य बदलती रहनेवाली नीति-धर्म की इस स्थिति को टालने कि लिये माया-सृष्टि के विषयापभोग छोड़ कर, नीति धर्म की इमारत इस ‘’बस भूतो में एक आत्मा’’-वाले अध्यात्म ज्ञान के मज़बूत पाये पर ही खड़ी करनी पड़ती हैं। क्योंकि पीछे नवे प्रकरण में कह आये हैं कि आत्मा को छोड़ जगत् में दूसरी कोई भी वस्तु नित्य नहीं है। यही तात्पर्य व्यासजी के इस वचन का है कि, ‘’धर्मो नित्य: सुखदु:खेत्वनित्ये‘’-नीति अथवा सदाचरण का धर्म नित्य है और सुख-दु:ख अनित्य हैं। यह सच है कि, दुष्ट और लोभियों के समाज में अहिंसा एवं सत्य प्रभृति नित्य नीति-धर्म पूर्णता से पाले नहीं जा सकते; पर इसका दोष इन नित्य नीति-धर्मों को देना उचित नहीं है। सूर्य की किरणों से किसी पदार्थ की परछाई चौरस मैदान पर सपाट और ऊँचे नीचे स्थान पर ऊँची-नीची स्थान पर ऊँची-नीची पड़ती देख जैसे यह अनुमान नहीं किया जा सकता कि वह परछाई मूल में ही ऊँची- नीची होगी, उसी प्रकार जबकि दुष्टों के समाज में नीति धर्म की पराकाष्ठा का शुद्ध स्वरूप नहीं पाया जाता, तब यह नहीं कह सकते कि अपूर्ण अवस्था के समाज में पाया जानेवाला नीति-धर्म का अपूर्ण स्वरूप ही मुख्य अथवा मूल का है।
|
|