गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
बारहवां प्रकरण
दूसरे प्रकरण के विवेचन से पाठक जान गये होंगे कि सतयुगी समाज की पूर्णावस्थावाले धर्म-अधर्म के स्वरूप पर ध्यान जमा कर, स्वार्थ-परायण लोगों के समाज में स्थितप्रज्ञ यह निश्चय करके बर्तता है, कि देश-काल के अनुसार उसमें कौन कौन से फ़र्क कर देना चाहिये; और कर्मयोगशास्त्र का यही तो विकट प्रश्न है, कि देश-काल के अनुसार उसमें कौन कौन से फ़र्क कर देना चाहिये; और कर्मयोगशास्त्र का यही तो बिकट प्रश्न है। साधु पुरुष स्वार्थ-परायण लोगों पर नाराज़ नहीं होते अथवा उनकी लोभ-बुद्धि देख करके वे अपने मन की समता को डिगने नहीं देते, किन्तु इन्हीं लोगों के कल्याण के लिये वे अपने उद्योग केवल कर्त्तव्य समझ कर वैराग्य से जारी रखते हैं। इसी तत्त्व को मन में ला कर श्रीसमर्थ रामदास स्वामी ने दासबोध के पूर्वाध में पहले ब्रह्मज्ञान बतलाया है और फिर[1] इसका वर्णन आरम्भ किया है कि स्थितप्रज्ञ या उत्तम पुरुष सर्वसाधारण लोगों को चतुर बनाने के लिये वैराग्य से अर्थात् नि:स्पृहता से लोकसंग्रह के निमित्त व्याप या उद्योग किस प्रकार किया करते हैं; और आगे अठारवें दशक[2] में कहा है कि सभी को ज्ञानी पुरुष अर्थात् जानकार के ये गुण–कथा, बातचीत, युक्ति, दाव पेंच, प्रसंग, प्रयत्न, दलील, चतुराई, राजनीति, सहनशीलता, तीक्ष्णता, उदारता, अध्यात्मज्ञान, भक्ति, अलिप्तता, वैराग्य, हिम्मत, लगातार प्रयत्न खरा स्वभाव, निग्रह, समता और विवेक आदि-सीखना चाहिये। परन्तु इस निस्पृह साधु को लोभी मनुष्यों में ही बर्तना है, इस कारण अन्त में[3] श्रीसमर्थ का यह उपदेश है, कि ‘’लट्ठ का सामना लट्ठ ही से करा देना चाहिये, उजड्ड के लिये उजड्ड चाहिये और नटखट के सामने नटखट की ही आवश्यकता है।’’तात्पर्य, यह निर्विवाद है कि पूर्णावस्था से व्यवहार में उतरने पर अतुल्य श्रेणी के धर्म-अधर्म में थोड़ा बहुत अन्तर कर देना पड़ता है। इस पर आधिभौतिक-वादियों की शंका है कि पूर्णावस्था के समाज से नीचे उतरने पर अनेक बातों के सार-असार का विचार करके परमावधि के नीति-धर्म में यदि कहीं थोड़ा बहुत फ़र्क़ करना पड़ता है, तो नीति-धर्म की नित्यता कहाँ रह गई और भारत-सावित्री में व्यास ने जो यह ‘’धर्मो नित्य:‘’ तत्व बतलाया है, उसकी क्या दशा होगी? वे कहते हैं कि अध्यात्मदृष्टि से सिद्ध होने वाला धर्म का नित्यत्व कल्पना -प्रसूत है, प्रत्येक समाज की स्थिति के अनुसार उस समय में ‘’अधिकांश लोगों के अधिक सुख ‘’ वाले तत्त्व से जो नीतिधर्म प्राप्त होंगे, वेही चोखे नीति नियम हैं। परन्तु यह दलील ठीक नहीं है। भूमिनिशास्त्र के नियमानुसार यदि कोई बिना चौड़ाई की सरल रेखा अथवा सर्वौश में निर्दोष गोलाकार न खींच सके, तो जिस प्रकार इतने ही से सरल रेखा की अथवा शुद्ध गोलाकार की शास्त्रीय व्याख्या गलत या निरर्थक नहीं हो जाती उसी प्रकार सरल और शुद्ध नियमों की बात है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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