गीता रहस्य -तिलक पृ. 366

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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बारहवां प्रकरण

कर्मयोगी स्थितप्रज्ञ की अथवा जीवन्‍मुक्‍त की बुद्धि के अनुसार सब प्राणियों में जिसकी साम्‍य बुद्धि हो गई और परार्थ मे जिसके स्‍वार्थ का सर्वथा लय हो गया, उसको विस्‍तृत नीतिशास्‍त्र सुनाने की कोई ज़रूरत नहीं, वह तो आप ही स्‍वयंप्रकाश अथवा बुद्ध हो गया। अर्जुन का अधिकार इसी प्रकार का था; उसे इससे अधिक उपदेश करने की ज़रूरत ही न थी कि ‘’तू अपनी बुद्धि को सम और स्थिर कर।’’ तथा ‘’कर्म को त्‍याग देने के व्‍यर्थ भ्रम में न पड़ कर स्थितप्रज्ञ की सी बुद्धि रख और स्‍वधर्म के अनुसार प्राप्‍त हुए सभी सांसारिक कर्म किया कर। तथापि यह साम्‍य बुद्धिरूप योग सभी को एक ही जन्‍म में प्राप्‍त नहीं हो सकता, इसी से साधारण लोगों के लिये स्थितप्रज्ञ के बर्ताव का और थोड़ा सा विवेचन करना चाहिये। परन्‍तु विवेचन करते समय खूब स्‍मरण रहे कि हम जिस स्थितप्रज्ञ का विचार करेंगे वह कृतयुग के,पूर्ण अवस्‍था में पहुँचे हुए समाज में रहनेवाला नहीं है; बल्कि जिस समाज में बहुतेरे लोग स्‍वार्थ में ही डूबे रहते हैं उसी कलियुगी समाज में उसे बर्ताव करना है। क्‍योंकि मनुष्‍य का ज्ञान कितना ही पूर्ण क्‍यों न हो गया हो और उसकी बुद्धि साम्‍यवस्‍था में कितनी ही क्‍यों न पहुँच गई हो, तो भी उसे ऐसे ही लोगों के साथ बर्ताव करना है जो काम-क्रोध आदि के चक्‍कर में पड़े हुए हैं और जिनकी बुद्धि अशुद्ध है।

इन लोगों के साथ व्‍यवहार करते समय यदि वह अहिंसा, दया, शान्ति, और क्षमा आदि नित्‍य एवं परमावधि के सद्गुणों को ही सब प्रकार से सर्वथा स्‍वीकार करे तो उसका निर्वाह न होगा[1]। अर्थात् जहाँ सभी स्थितप्रज्ञ हैं, उस समाज की बढ़ी-चढ़ी हुई नीति और धर्म-अधर्म से उस समाज के धर्म-अधर्म कुछ न कुछ भिन्न रहेंगे ही कि जिसमें लोभी पुरुषों का ही भारी जत्‍था होगा; वर्ना साधु पुरुष को यह जगत्. छोड़ देना पड़ेगा और सर्वत्र दुष्‍टों का ही बोलवाला हो जावेगा। इसका अर्थ यह नहीं है कि साधु पुरुष को अपनी समता-बुद्धि छोड़ देनी चाहिये; फिर भी समता-समता में भी भेद है। गीता में कहा है कि ‘’ब्राह्मणों गवि हस्तिनि’’[2]-ब्राह्मण, गाय और हाथी में पण्डितों की समबुद्धि होती है, इसलिये यदि कोई गाय के लिये लाया हुआ चारा ब्राह्मण को, और ब्राह्मण के लिये बनाई गई रसोई गाय को खिलाने लगे, तो क्‍या उसे पण्डित कहेंगे? संन्‍यास मार्गवाले इस प्रश्‍न का महत्‍व भले न माने, पर कर्मयोगशास्‍त्र की बात ऐसी नहीं है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ‘’ In the second place, ideal conduct such as ethical theory is concerned with, is not possible for the ideal man in the midst of men otherwise constituted. An absolutely just or perfectly sympathetic person, could not live and act according to his nature in a tribe of cannibals. Among people who are treacherous and utterly without scruple, entire truthfulness and openness must bring ruin.” Spencer’s Data of Ethics, Chap. XV. P. 280. Relative Ethics “On the evolution-hypothesis, the two ( A bsolute and Relative Ethics ) presuppose one another; and only when-they co-exist, can there exist that ideal conduct which absolute Ethics has to formulate, and which Relative Ethics has to take as the stand ard by which to estimate divergenoies from right, or degrees of wrong.”
  2. गी. 5. 18

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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