गीता रहस्य -तिलक पृ. 364

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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बारहवां प्रकरण

सृष्टि कर्त्‍ता परमेश्‍वर सब कर्म करने पर भी जिस प्रकार पाप-पुण्‍य से अलिप्‍त रहता है, उसी प्रकार इन ब्रह्मभूत साधु पुरुषों की स्थिति सदैव पवित्र और निष्‍पाप रहती है। और तो क्‍या, समय-समय पर ऐसे पुरुष स्‍वेच्‍छा अर्थात् अपनी मर्जी से जो व्‍यवहार करते हैं, उन्‍हीं से आगे चलकर विधि नियमों के निर्बन्‍ध बन जाते हैं; और इसी से कहते हैं कि ये सत्‍पुरुष इन विधि नियमों के जनक उपजाने वाले हैं-वे इनके गुलाम कभी नहीं हो सकते। न केवल वैदिक धर्म में, प्रत्‍युत बौद्ध और क्रिश्चियन धर्म में भी यही सिद्धान्‍त पाया जाता है, तथा प्राचीन ग्रीक तत्‍व ज्ञानियों को भी यह तत्‍व मान्‍य हो गया था; और अर्वाचीन काल में कान्‍ट ने[1] अपने नीति शास्‍त्र के ग्रन्‍थ में उप‍पत्ति सहित यही सिद्ध कर दिखाया इस है। इस प्रकार नीति नियमों के कभी भी गँदले न होने वाले मूल झिरने या निर्दोष पाठ ( सबक ) का इस‍ प्रकार निश्‍च हो चुकने पर आप ही सिद्ध हो जाता है कि नीति शास्‍त्र या कर्मयोगशास्‍त्र के तत्‍व देखने की जिसे अभलाषा हो, उसे इन उदार और निष्‍कलंक सिद्ध पुरुषों के चरित्रों का ही सूक्ष्‍म अवलोकन करना चाहिये।

इसी अभिप्राय से भगवद्गीता में अर्जुन ने श्रीकृष्‍ण से पूछा है, कि ‘’स्थितधी: किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम[2]- स्थितप्रज्ञ पुरुष का बोलना, बैठना और चलना कैसा होता है; अथवा ‘’कैर्लिगैंस्‍त्रीन् गुणान् एतान् अतीतो भवति प्रभो, किमाचार: [3]- पुरुष त्रिगुणातीत कैसे होता है, उसका आचार क्‍या है और उसको किस प्रकार पहचानना चाहिये। किसी शराफ़ के पास सोने का ज़ेबर जँचवाने के लिये जाने ले जाने पर वह अपनी दुकान में रखे हुए 100 टञ्च के सोने के टुकड़े से उसको परख कर जिस प्रकार उसका खरा-खोटापन बतलाता है, उसी प्रकार कार्य अकार्य का या धर्म-अधर्म का निर्णय करने के लिये स्थिप्रज्ञ का बर्ताव ही कसौटी है, अत: गीता के उक्‍त प्रश्‍नों में यही अर्थ गर्भित है कि, मुझे उस कसौटी का ज्ञान करा दीजिये। अर्जुन के इस प्रश्‍न का उत्‍तर देने में भगवान् ने स्थिप्रज्ञ अथवा त्रिगुणातीत की स्थिति के जो वर्णन किये हैं उन्‍हें कुछ लोग संन्‍यास मार्गवाले ज्ञानी पुरुषों के बतलाते हैं; उन्‍हें वे कर्मयोगियों के नहीं मानते। कारण यह बतलाया जाता है कि संन्‍यासियों को उद्देश कर ही ‘निराश्रय:’[4] विशेषण का गीता में प्रयोग हुआ है और बारहवें अध्‍याय में स्थितप्रज्ञ भगवत भक्‍तो का वर्णन करते समय ‘सर्वारम्‍भपरित्‍यागी’[5] एवं अनिकेत:’[6] इन स्‍पष्‍ट पदों का प्रयोग किया गया है। परन्‍तु निराश्रय अथवा अनिकेत पदों का अर्थ ‘घर द्वार छोड़ कर जंगलों में भटकनेवाला ‘ विवक्षित नहीं है; किन्‍तु इसका अर्थ ‘’अनाश्रित: कर्मफलं’’[7] के समानार्थक ही करना चाहिये-तब इसका अर्थ, ‘कर्मफल का आश्रय न करने वाला’ ‘अथवा जिसके मन में उस फल के लिये ठौर नहीं ‘ इस ढंग का हो जायेगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. A perfectly good will would therefore be eqully subject to objective laws ( Viz. laws of good ), but could not be conceived as obliged thereby to act lawfully, because of itself from its subjective constitution it can only be determined by the conception of good. Therefore no imperatives hold for the Divine will, or in general for a holy will; ought is here out of place, because the volition is already of itself necessarily in unison with the law,” Kant’s Metaphysic of Morals. P. 31 (Abbott’s trans, in Kant’s Theory of Ethics 6th Ed.). निट्शे किसी भी अध्‍यात्मिक उपपत्ति को स्‍वीकार नहीं करता; तथापि उसने अपने ग्रन्‍थ में उत्‍तम पुरुष का (Superman) जो वर्णन किया है उसमें उसने कहा है कि उल्लिखित पुरुष भले और बुरे से परे रहता है उसके एक ग्रन्‍थ का नाम भी Beyond Good and Evil है।
  2. गी. 2. 54
  3. गी. 14. 21
  4. 4. 20
  5. 12. 16
  6. 12. 19
  7. 6.1

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प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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