गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
बारहवां प्रकरण
किसी एक आध पुरुष के, इस पूर्ण अवस्था में पहुँचने या न पहुँचने के सम्बन्ध में शंका हो सकेगी। परन्तु किसी भी रीति से जब एक बार निश्चय हो जाय कि कोई पुरुष इस पूर्ण अवस्था में पहुँच गया है, तब उसके पाप-पुण्य के सम्बन्ध में, अध्यात्मशास्त्र के उल्लिखित सिद्धान्त को छोड़ और कोई कल्पना ही नहीं की जा सकती। कुछ पश्चिमी राजधर्मशास्त्रियों के मतानुसार जिस प्रकार एक स्वतन्त्र पुरुष में या पुरुषसमूह में राजसत्ता अधिष्ठित रहती है, और राजनियमों से प्रजा के बँधे रहने पर भी वह राजा उन नियमों से अछूता रहता है, ठीक उसी प्रकार नीति के राज्य में स्थितप्रज्ञ पुरुषों का अधिकार रहता है। उनके मन में कोई भी काम्य बुद्धि नहीं रहती, अत: केवल शास्त्र से प्राप्त हुए कर्त्तव्यों को छोड़ और किसी भी हेतु से कर्म करने के लिये वे प्रवृत्त नहीं हुआ करते; अतएव अत्यन्त निर्मल और शुद्ध वासनावाले इन पुरुषों के व्यवहार को पाप या पुण्य, नीति या अनीति शब्द कदापि लागू नहीं होते; वे तो पाप और पुण्य से बहुत दूर आगे पहुँच जाते हैं। श्रीशकंराचार्य ने कहा है- निस्त्रैगुण्ये पथि विचरता को विधि: को निषेध:। ‘’जो पुरुष त्रिगुणातीत हो गये, उनको विधि-निषेधरूपी नियम बांध नहीं सकते‘’ और बौद्ध ग्रन्थकारों ने भी लिखा है कि ‘’जिस प्रकार उत्तम हीरे को घिसना नहीं पड़ता, उसी प्रकार जो निर्वाण पद का अधिकारी हो गया, उसके कर्म को विधि नियमों का अड़ंगा लगाना नहीं पड़ता‘’[1]। कौषीतकी उपनिषद[2] में, इन्द्र ने प्रतर्दन से जो यह कहा है कि आत्मज्ञानी पुरुष को “मातृहत्या, पितृहत्या और भ्रूणहत्या आदि पाप नहीं लगते” अथवा गीता[3] में, जो यह वर्णन है कि अंहकार बुद्धि से सर्वथा विमुक्त पुरुष यदि लोगों को मार भी डाले तो भी वह पाप-पुण्य से सर्वदा बेलाग ही रहता है, उसका तात्पर्य भी यही है[4]। ‘धम्मपद’ नामक बौद्ध ग्रन्थ में इसी तत्व का अनुवाद किया गया है ( देखो धम्मपद, श्लोक 294 और 295 )[5]। नई बाइबल में ईसा के शिष्य पाल ने जो यह कहा है कि ‘’मुझे सभी बातें ( एक ही सी ) धर्म्य हैं’’[6] उसका आशय या जान के इस वाक्य का आशय भी कि ‘’जो भगवान के पुत्र (पूर्ण भक्त ) हो गये, उनके हाथ से पाप कभी नहीं हो सकता ‘’[7] हमारे मत में ऐसा ही है। जो शुद्ध बुद्धि को प्रधानता न देकर केवल ऊपरी कर्मों से ही नीतिमत्ता का निर्णय करना सीखे हुए हैं, उन्हें यह सिद्धान्त अद्भुत सा मालूम होता है; और विधि नियम से परे का मनमाना भला बुरा करने वाला’’–ऐसा अपने ही मन का कुतर्क-पूर्ण अर्थ करके कुछ लोग उल्लिखित सिद्धान्त का इस प्रकार विपर्यास करते हैं कि ‘’स्थिप्रज्ञ को सभी बुरे कर्म करने की स्वतन्त्रता है’’। पर अन्धे को खम्भा ने देख पड़े तो जिसे प्रकार खम्भा दोषी नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मिलिन्दप्रश्न . 4. 5. 7
- ↑ 3. 1
- ↑ 18. 17
- ↑ देखो पच्चदशी. 14. 16 और 17
- ↑ कौषीतकी उपनिषद का वाक्य यह है-‘’यो मां विजानीयात्रास्य केनचित् कर्मणा लोको मीथते न मातृवधेन न पितृवधेन न स्तेयेन न भ्रूणहत्या। ‘’ धम्मपद का श्लोक इस प्रकार है :-
मातरं पितरं हन्त्वा राजानो द्वे च खत्तिये।
रठ्ठं सानुचरं हन्त्वा अनीघो याति ब्राह्मणो।।
मातरं पितरं हन्त्वा राजानों द्वे च सोत्थिये।
वेय्यग्घपंचमं हन्त्वा अनीघो याति ब्राह्मणो।।प्रगट है कि धम्मपद में यह कल्पना कौषीतकी उपनिषद से ली गई है। किन्तु बौद्ध ग्रन्थकार प्रत्यक्ष मातृवध या पितृवध अर्थ न करके ‘माता’ का तृष्णा और ‘पिता’ का अभिमान अर्थ करते हैं। लेकिन हमारे मत में इस श्लोक का नीतितत्त्व बौद्ध ग्रन्थकारों को भली-भाँति ज्ञात नहीं हो पाया, इसी से उनहोंने यह औपचारिक अर्थ लगाया है। कौषीतकी उपनिषद में ‘’मातृबधेन पितृबधेन ‘’ मन्त्र के पहले इन्द्र ने कहा है कि ‘’यद्यपि मैंने वृत्र अर्थात् ब्राह्मण का वध किया है तो भी मुझे उसका पाप नहीं लगता; ‘’ इससे स्पष्ट होता है, कि यहाँ पर प्रत्यक्ष वध ही विवक्षित है। धम्मपद के अंग्रेजी अनुवाद में ( S. B. E. V0l. X. pp. 70, 71) मेक्समूलर साहब ने इन श्लोकों की जो टीका की है, हमारे मत में वह भी ठीक नहीं है।
- ↑ 1 कररिं. 6. 12; रोम. 8. 2
- ↑ जा. 1. 3. 9
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