गीता रहस्य -तिलक पृ. 360

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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बारहवां प्रकरण

इसे ही कर्मयोग शास्‍त्र कहते हैं; और ऊपर जो ज्ञानी पुरुष बतलाये गये हैं, उनकी स्थिति और कृति ही इस शास्‍त्र का आधार है। इस जगत के सभी पुरुष यदि इस प्रकार के आत्‍मज्ञानी और कर्मयोगी हों, तो कर्मयोगशास्‍त्र की कोई ज़रूरत ही न पड़ेगी। नारायणीय धर्म में एक स्‍थान पर कहा है-

एकान्तिनों हि पुरुषा दुर्लभा बहवो नृप।
यद्येकान्तिभिराकीर्णे जगत् स्‍यात्‍कुरुनन्‍दन।।
अहिंसकैरात्‍मविभ्दि: सर्वभूतहिते रतै :।
भवेत् कृतयुगप्राप्ति: आशी:कर्मविवर्जिता।।

‘’ एकान्तिक अर्थात् प्रवृत्तिप्रधान भागवतधर्म का पूर्णतया आचरण करने वाले पुरुषों का अधिक मिलना कठिन है। आत्‍मज्ञानी, अहिंसक, एकान्‍तधर्म के ज्ञानी और प्राणिमात्र की भलाई करने वाले पुरुषों से यदि यह जगत् भर जावे तो आशी:- कर्म अर्थात् काम्‍य अथवा स्‍वार्थ बुद्धि से किये हुए सारे कर्म इस जगत से दूर हो कर फिर कृतयुग प्राप्‍त हो जावेगा’’[1]। क्‍योंकि ऐसी स्थिति में सभी पुरुषों के ज्ञानवान रहने से कोई किसी का नुकसान तो करेगा ही नहीं। हमारे शास्‍त्रकारों का मत है कि बहुत पुराने समय में समाज की ऐसी ही स्थिति थी और वह फिर कभी न कभी प्राप्‍त होगी ही[2]; परन्‍तु पश्चिमी पण्डित पहली बात को नहीं मानते-वे अर्वाचीन इतिहास के आधार से कहते हैं कि पहले कभी ऐसी स्थिति नहीं थी; किन्‍तु भविष्‍य में मानव जाति के सुधारों की बदौलत ऐसी स्थिति का मिल जाना कभी न कभी सम्‍भव हो जावेगा। जो हो; यहाँ इतिहास का विचार इस समय कर्तव्‍य नहीं है। हां, यह कहने में कोई हानि नहीं कि समाज की इस अत्‍युत्‍कृष्‍ट स्थिति अथवा पूर्णावस्‍था में प्रत्‍येक मनुष्‍य परम ज्ञानी रहेगा, और वह जो व्‍यवहार करेगा उसी को शुद्ध, पुण्‍यकारक, धर्म्‍य अथवा कर्त्तव्‍य की पराकाष्‍ठा मानना चाहिये। इस मत को दोनों ही मानते हैं।

प्रसिद्ध अंग्रेज सृष्टिशास्‍त्र-ज्ञाता स्‍पेन्‍सर ने इसी मत का अपने नीतिशास्‍त्र विषयक ग्रन्‍थ के अन्‍त में प्रतिपादन किया है; और कहा है कि प्राचीन काल में ग्रीस देश के तत्‍वज्ञानी पुरुषों ने यही सिद्धान्‍त किया था।[3] उदाहरणार्थ, यूनानी तत्‍वेता प्‍लेटो अपने ग्रन्‍थ में लिखता है-तत्‍व ज्ञानी पुरुष को जो कर्म प्रशस्‍त जँचे, वही शुभकारक और न्‍याय्य है; सर्व साधारण मनुष्‍यों को ये धर्म विदित नहीं होते , इसलिये उन्‍हे तत्‍वज्ञ पुरुष के ही निर्णय को प्रमाण मान लेना चाहिये। अरिस्‍टाटल नामक दूसरा ग्रीक तत्‍वज्ञ अपने नीतिशास्‍त्र विषयक ग्रन्‍थ[4] में कहता है कि ज्ञानी पुरुषों का किया हुआ फैसला सदैव इसलिये अचूक रहता है, कि वे सच्‍चे तत्त्व को जाने रहते हैं और ज्ञानी पुरुष का यह निर्णय या व्‍यवहार ही औरों को प्रमाणभूत है। एपिक्‍यूरस नाम के एक और ग्रीक तत्‍वशास्‍त्रवेता ने इस प्रकार के प्रामाणिक परम ज्ञानी पुरुष के वर्णन में कहा कि, वह ‘’शान्‍त, समबुद्धिवाला और परमेश्‍वर के ही समान सदा आनन्‍द मय रहता है; तथा उसको लागों से अथवा उससे लोगों को ज़रा सा भी कष्‍ट नहीं होता’’[5]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. शां. 348. 62, 63
  2. मभा. शां. 59. 14
  3. Spencer’s Data of Ethics, chap. XV, pp. 275-278. स्‍पेन्‍सर ने इसे Absolute Ethios नाम दिया है।
  4. 3. 4
  5. Epicurus held the virtnous state to be “ a tranquil, undisturbed, innocuous, noncompetitive fruition, which approached most nearly to the perfect happiness of the Gods,” who “neither suffered vexation in themselves, nor caused vexation to others.” Spencer’s Data of Ethics p.278; Bain’s Mental and Moral Science Ed. 1875, p. 530 इसी को Ideal Wise Man कहा है। गी. र. 47

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प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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