गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
ग्यारहवाँ प्रकरण
यथाश्वा रथहीनाश्च रथाश्चश्वैर्विना यथा। अर्थात् ‘’जिस प्रकार रथ बिना घोड़े और घोड़े के बिना रथ ( नहीं चलते ) उसी प्रकार तपस्वी के तप और विद्या की भी स्थिति है। जिस प्रकार अन्न शहद से संयुक्त हो और शहद अन्न से संयुक्त हो, उसी प्रकार तप और विद्या के संयुक्त होने से एक महौषधि होती है। जैसे पक्षियों की गति दोनों पंखों के योग से ही होती है, वैसे ही ज्ञान और कर्म ( दोनों ) से शाश्वत ब्रह्म प्राप्त होता है।’’ हारीतस्मृति के ये वचन वृद्धात्रेयस्मृति के दूसरे अध्याय में भी पाये जाते हैं। इन वचनों से, और विशेष कर उनमें दिये गये दृष्टान्तों से, प्रगट हो जाता है कि मनुस्मृति के वचन का क्या अर्थ लगाना चाहिये। यह तो पहले ही कह चुके हैं, कि मनु तप शब्द में ही चातुर्वणर्य के कर्मों का समावेश करते हैं[1]; और अब देख पड़ेगा, कि तैत्तिरीयोपनिषद में ‘’तप और स्वाध्याय-प्रवचन’’ इत्यादि का जो आचरण करने के लिये कहा गया है[2] वह भी ज्ञान-कर्म-समुच्चय पक्ष को स्वीकार कर ही कहा गया है। समूचे योगवासिष्ठ ग्रन्थ का तात्पर्य भी यही है, क्योंकि इस ग्रन्थ के आरम्भ में सुतीक्ष्ण ने पूछा है, कि मुझे बतलाइये, कि मोक्ष कैसे मिलता है? केवल ज्ञान से, केवल कर्म से, या दोनों के समुच्चय से? और उसे उत्तर देते हुए हारीतस्मृति का, पक्षी के पंखोंवाला दृष्टान्त ले कर, पहले यह बत-लाया है कि ‘’जिस प्रकार आकाश में पक्षी की गति दोनों पंखों से ही होती है, उसी प्रकार ज्ञान और कर्म इन्हीं दोंनों से मोक्ष मिलता है, केवल एक से ही यह सिद्धि मिल नहीं जाती।‘’ और आगे इसी अर्थ को विस्तार सहित दिखलाने के लिये समूचा योगवासिष्ठ ग्रन्थ कहा गया है[3]। इसी प्रकार वसिष्ठ ने राम को मुख्य कथा में स्थान-स्थान पर बार बार यही उपदेश किया है, कि ‘’जीवन्मुक्त के समान बुद्धि को शुद्ध रख कर तुम समस्त व्यवहार करो ‘’[4], या ‘’ कर्मों का छोड़ना मरण-पर्यन्त उचित न होने के कारण[5], स्वधर्म के अनुसार प्राप्त हुए राज्य को पालने का काम करते रहो‘’[6]। इस ग्रन्थ का उपसंहार और श्रीरामचनद्र के किये हुए काम भी इसी उपदेश के अनुसार हैं। परनतु योगवासिष्ठ के टीकाकार थे संन्यासमार्गीय; इसलिेय पक्षी के दो पंखोवाली उपमा के स्पष्ट होने पर भी, उन्होंने अन्त में अपने पास से ही यह तुर्रा लगा ही दिया, कि ज्ञान और कर्म दानों युगपत् अर्थात् एक ही समय में विहित नहीं हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मनु. 11. 236
- ↑ तै. 1. 9
- ↑ यो. 1. 1. 6-9
- ↑ यो. 5.18.17-26
- ↑ यो. 6. उ. 2. 42
- ↑ यो. 5.5. 54 और 6.उ 213.50
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