गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
ग्यारहवाँ प्रकरण
साम्प्रदायिक दृष्टि से देखें, तो ये अर्थ महत्व के ही नहीं, प्रत्युत आवश्यक भी हैं। परन्तु जिन्हें यह मूल सिद्धान्त ही मान्य नहीं, कि समस्त उपनिषदों में एक ही अर्थ प्रतिपादित रहना चाहिये.-दो मार्गों का श्रुति-प्रतिपादित होना शक्य नही,-उन्हें उल्लिखित मंत्र में विद्या और अमृत शब्द के अर्थ बदलने के लिये कोई भी आवश्यकता नहीं रहती। यह तत्व मान लेने से भी, कि परब्रह्म ‘एकमेवाद्वितीयं’ है, यह सिद्ध नहीं होता कि उसके ज्ञान होने का उपाय एक से अधिक न रहे। एक ही अटारी पर चढ़ने के लिये दो ज़ीने, या एक ही गांव को जाने के लिये जिस प्रकार दो मार्ग हो सकते हैं; उसी प्रकार मोक्ष-प्राप्ति के उपायों की या निष्ठा की बात है; और इसी अभिप्राय से भगवद्गीता में स्पष्ट कह दिया है-‘’लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा।’’ दो निष्ठाओं का होना सम्भवनीय कहने पर, कुछ उपनिषदों में केवल ज्ञाननिष्ठा का, तो कुछ में ज्ञान-कर्म-समुच्चयनिष्ठा का वर्णन आना कुछ अशक्य नहीं है। अर्थात्, ज्ञाननिष्ठा का विरोध होता है, इसी से ईशावास्योपनिषद के शब्द का सरल, स्वाभाविक और स्पष्ट अर्थ छोड़ने के लिये कोई कारण नहीं रह जाता। यह कहने के लिये, कि श्रीमच्छंकराचार्य का ध्यान सरल अर्थ की अपेक्षा संन्यासनिष्ठा-प्रधान एकवाक्यता की ओर विशेष था, एक और दूसरा कारण भी है। तैत्तिरीय उपनिषद के शांकरभाष्य[1]में ईशावास्य-मंत्र का इतना ही भाग दिया है, कि ‘’अविद्यया मृत्युं तीर्त्वां विद्ययाऽमृतमश्नुते’’, और उसके साथ ही यह मनुवचन भी दे दिया है-‘’तपसा कल्मषं हन्ति विद्ययाअमृतमश्नुते’’[2]; और इन दोनों वचनों में ‘’ विद्या’’ शब्द का एक ही मुख्यार्थ ( अर्थात् ब्रह्मज्ञान )[3] आचार्य ने स्वीकार किया है। परन्तु यहाँ आचार्य का कथन है, कि ‘’तीर्त्वा =तैर कर या पार कर’’ इस पद से पहले मृत्युलोक को तैर जाने की क्रिया पूरी हो लेने पर, फिर ( एक साथ ही नहीं ) विद्या से अमृतत्व प्राप्त होने की क्रिया संघटित होती है। किनतु कहना नहीं होगा, कि यह अर्थ पूर्वार्ध के “उभयं सह” शब्दों के विरुद्ध होता है और प्राय: इसी कारण से ईशावास्य के शांकरभाष्य में यह अर्थ छोड़ भी दिया गया हो। कुछ भी हो; ईशावास्य के ग्यारहवें मंत्र का शांकरभाष्य में निराला व्याख्यान करने का जो करण है।, वह इससे व्यक्त हो जाता है। यह कारण साम्प्रदायिक है; और भाष्यकर्त्ता की साम्प्रदायिक दृष्टि स्वीकार न करने-वालों को प्रस्तुत भाष्य का यह व्याख्यान मान्य न होगा। यह बात हमें भी मंजूर है, कि श्रीमच्छंकराचार्य जैसे अलौकिक ज्ञानी पुरुष के प्रतिपादन किये हुए अर्थ को छोड़ देने का प्रसंग जहाँ तक टले, वहाँ तक अच्छा है। परन्तु साम्प्रदायिक दृष्टि त्यागने से ये प्रसंग तो आवेंगे ही और इसी कारण हमसे पहले भी, ईशावास्यमंत्र का अर्थ शांकरभाष्य से विभिन्न ( अर्थात् जैसा हम कहते हैं, वैसा ही ) अन्य भाष्यकारों ने लगाया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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