गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
ग्यारहवाँ प्रकरण
उनमें, या उनके ब्रह्मज्ञानी शिष्यों में, याज्ञवल्क्य के समान एक-आध दूसरे पुरुष के अतिरिक्त, कोई ऐसा नहीं मिलता जिसने कर्मत्याग रूप संन्यास लिया हो। इसके विपरीत उनके वर्णनों से देख पड़ता है, कि वे गृहस्थाश्रमी ही थे। अतएव कहना पड़ता है, कि समस्त उपनिषद संन्यास-प्रधान नहीं हैं। इनमें से कुछ में तो संन्यास और कर्मयोग का विकल्प है और कुछ में सिर्फ ज्ञान-कर्म समुच्चय ही प्रतिपादित है। परन्तु उपनिषदों के साम्प्रदायिक भाष्यों में ये भेद नहीं दिखलाये गये हैं; किन्तु यही कहा गया है, कि समस्त उपनिषद केवल एक ही अर्थ-विशेषत: संन्यास-प्रतिपादन करते हैं। सारांश, साम्प्रदायिेक टीकाकरों के हाथ से गीता की और उपनिषदों का भी एक ही दशा हो गई है; अर्थात् गीता के कुछ श्लोंकों के समान उपनिषदों के कुछ मंत्रों की भी इन भाष्यकारों को खींचातानी करनी पड़ी है। उदाहरणार्थ, ईशावास्य उपनिषद को लीजिये। यद्यपि यह उपनिषद छोटा अर्थात् सिर्फ़ अट्ठारह श्लोकों का है, तथापि इसकी योग्यता अन्य उपनिषदों की अपेक्षा अधिक समझी जाती है। क्योंकि यह उपनिषद स्वयं वाजसनेयी संहिता में ही कहा गया है और अन्यान्य उपनिषद आरण्यक ग्रन्थ में कहे गये हैं कि यह बात सर्वमान्य है, कि संहिता की अपेक्षा ब्राह्मण, और ब्राह्मणों की अपेक्षा आरण्यक ग्रन्थ, उत्तरोत्तर कम पमाण के हैं। यह समूच्चायात्मक है। इसके पहले मन्त्र ( श्लोक ) में यह कह कर, कि ‘’जगत् में जो कुछ हे, उसे ईशावास्य अर्थात् परमेश्वराधिष्ठित समझना चाहिये,’’ दूसरे ही मंत्र में स्पष्ट कह दिया है, कि ‘’जीवन भर सौ वर्ष निष्काम कर्म करते रह कर ही जीते रहने की इच्छा रखो।‘’ वेदान्तसूत्र में कर्मयोग के विवेचन करने का जब समय आया तब, और अन्यान्य ग्रन्थों में भी, ईशावास्य का यही वचन ज्ञान-कर्म समुच्चय पक्ष का समर्थक समझ कर दिया हुआ मिलता है। परन्तु ईशावास्योपनिषद इतने से ही पूरा नहीं हो जाता। दूसरे मन्त्र में कही गई बात का समर्थन करने के लिये आगे ‘अविद्या’ ( कर्म ) और ‘विद्या’ ( ज्ञान ) के विवेचन का आरम्भ कर, नवें मंत्र में कहा है कि ‘’निरी अविद्या ( कर्म ) का सेवन करने वाले पुरुष अधिक अँधेरे में घुसते हैं, और कोरी विद्या ( ब्रह्मज्ञान ) में मग्न रहनेवाले पुरुष अधिक अन्धेरे में जा पड़ते हैं।’’ केवल अविद्या ( कर्म ) और केवल विद्या ( ज्ञान ) की–अलग अलग प्रत्येक की-इस प्रकार लघुता दिखला कर ग्यारहवें मन्त्र में नीचे लिखे अनुसार ‘विद्या’ और 'अविद्या’ दोनों के समुच्चय की आवश्यकता इस उपनिषद में वर्णन की गई है- विद्यां चाऽविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
प्रकरण | नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज