गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
ग्यारहवाँ प्रकरण
मनु और याज्ञवल्क्य ने कर्मयोग को चतुर्थ आश्रम का विकल्प कहा है; पर बौधायन और आपस्तम्ब ने ऐसा न कर स्पष्ट कह दिया है, कि गृहस्थाश्रम ही मुख्य है और उसी से आगे अमृतत्व मिलता है। बौधायन धर्मसूत्र में ‘’जायमानों वै ब्राह्मणस्त्रिभिर्ऋणवा जायते ‘’-जन्म से ही प्रत्येक ब्राह्मण अपनी पीठ पर तीन ऋण ले आता है-इत्यादि तैत्तिरीय संहिता के वचन पहले दे कर कहा, है कि इन ऋणों को चुकाने के लिये यज्ञ-याग आदि-पूर्वक गृहस्थाश्रम का आश्रय करने वाला मनुष्य ब्रह्मलोक को पहुँचता है और ब्रह्मचर्य या संन्यास की प्रशंसा करने वाले अन्य लोग भी धूल में मिल जाते हैं[1]; एवं आपस्तम्बसूत्र में भी ऐसा ही कहा है[2]। यह नहीं, कि इन दोनों धर्मसूत्रों में संन्यास-आश्रम का वर्णन ही नहीं है; किन्तु उसका भी वर्णन करके गृहस्थाश्रम का ही महत्व अधिक माना है। इससे और विशेषत: मनुस्मृति के समय में भी कर्मत्यागरूप संन्यास आश्रम की अपेक्षा निष्काम कर्मयोगरूपी गृहस्थाश्रम प्राचीन समझा जाता था, और मोक्ष की दृष्टि से उसकी योग्यता चतुर्थ आश्रम के बराबर ही गिनी जाती थी। गीता के टीकाकारों का ज़ोर संन्यास या कर्मत्याग-युक्त भक्ति पर ही होने के कारण उपर्यक्त स्मृति-वचनों का उल्लेख उनकी टीका में नहीं पाया जाता। परन्तु उन्होंने इस ओर दुर्लभ भले ही किया हो, किन्तु इससे कर्मयोग की प्राचीनता घटती नहीं है। यह कहने में कोई हानि नहीं, कि इस प्रकार प्राचीन होने के कारण, स्मृतिकारों को यति–धर्म का विकल्प, कर्मयोग मानना पड़ा। यह हुई वैदिक कर्मयोग की बात। श्रीकृष्ण के पहले जनक आदि इसी का आचरण करते थे। परन्तु आगे उसमें भगवान् ने भक्ति को भी मिला दिया और उसका बहुत प्रसार किया, इस कारण उसे ही ‘भागवतधर्म’ नाम प्राप्त हो गया है। यद्यपि भगवद्गीता ने इस प्रकार संन्यास की अपेक्षा कर्मयोग को ही अधिक श्रेष्ठता दी है, तथापि कर्मयोगमार्ग को आगे गौणता क्यों प्राप्त हुई और संन्यास-मार्ग का ही बोलावाला क्यों हो गया-इसका विचार ऐतिहासिक दृष्टि से आगे किया जावेगा। यहाँ इतना ही कहना है, कि कर्मयोग स्मार्तमार्ग के पश्चात् का नहीं है, वह प्राचीन वैदिक काल से चला आ रहा है। भगवद्गीता के प्रत्येक अध्याय के अन्त में ‘’इति श्रीमद्गगवद्भीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे’’ यह जो संकल्प है, इसका मर्म पाठकों के ध्यान में अब पूर्णतया आ जावेगा। यह संकल्प बतलाता है, कि भगवान् के गाये हुए उपनिषद में अन्य उपनिषदों के समान ब्रह्मविद्या में ‘सांख्य’ और ‘योग’ ( वेदान्ती संन्यासी और वेदान्ती कर्मयोगी ) ये जो दो पन्थ उपजते हैं उनमें से योग का अर्थात् कर्मयोग का प्रतिपादन ही भगवद्गीता का मुख्य विषय है। यह कहने में भी कोई हानि नहीं, कि भगवद्गीतोपनिषद कर्मयोग का प्रधान ग्रन्थ है। क्योंकि यद्यपि वैदिक काल से ही कर्मयोग चला आ रहा है; तथापि ‘’कुर्वन्नेवेह कर्माणि’’[3], या’’ आरभ्य कर्माणि गुणन्वितानि’’[4] अथवा ‘’विद्या के साथ ही साथ स्वाध्याय आदि कर्म करना चाहिये’’[5], इस प्रकार के कुछ थोड़े से उल्लेखों के अतिरिक्त, उपनिषदों में इस कर्मयोग का विस्तृत विवेचन कहीं भी नहीं किया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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