गीता रहस्य -तिलक पृ. 342

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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ग्यारहवाँ प्रकरण

भागवतधर्म का यह मुख्‍य तत्‍व है, कि जो पुरुष अपने सभी कर्म परमेश्‍वर को अर्पण कर निष्‍काम बुद्धि से करने लगे, वह गृहस्‍थाश्रमी हो, तो भी उसे ‘नित्‍य संन्‍यासी’ ही कहना चाहिये[1]; और भागवतपुराण में भी पहले सब आश्रम धर्म बतला कर अन्‍त में नारद ने युधिष्ठिर को इसी तत्त्व का उपदेश किया है। वामन पण्डित ने जो गीता पर यथार्थ-दीपिका टीका लिखी है, उसके[2]कथनानुसार ‘’शिखा बोडुनी तोडिला दोरा,’’-मूँड़ मुँड़ाय भये संन्‍यासी-या हाथ में दण्‍ड ले कर भिक्षा मांगी, अथवा सब कर्म छोड़ कर जंगल में जा रहे, तो इसी से संन्‍यास नहीं हो जाता। संन्‍यास और वैराग्‍य बुद्धि के धर्म है; दण्‍ड,चोटी या जनेऊ के नहीं। यदि कहो, कि ये दण्‍ड आदि के ही धर्म हैं, बुद्धि के अर्थात् ज्ञान के नहीं, तो राजछत्र अथवा छतरी की डांड़ी पकड़नेवाले को भी वह मोक्ष मिलना चाहिये, जो संन्‍यासी को प्राप्‍त होता है; जनक–सुलभा-संवाद में ऐसा ही कहा है-

त्रिदण्‍डादिषु यद्यस्ति मोक्षो ज्ञाने न कस्‍यचित्।
छत्रादिषु कथं न स्‍यात्‍तुल्‍यहेतौ परिग्रहे।।

[3]; क्‍योंकि हाथ में दण्‍ड धारण करने में यह मोक्ष का हेतु दोनों स्‍थानों में एक ही है।
तात्‍पर्य. कायिक, वाचिक और मानसिक संयम ही सच्‍चा त्रिदण्‍ड है[4]; और सच्‍चा संन्‍यास काम्‍य बुद्धि का संन्‍यास है[5]; एवं वह जिस प्रकार भागवतमार्ग में नहीं छूटता[6], उसी प्रकार बुद्धि को स्थिर रखने का कर्म या भोजन आदि कर्म भी सांग्‍व्‍यमार्ग में अन्‍त तक छूटता ही नहीं है। फिर ऐसी क्षुद्र शंकाएं करके भगवे या सफ़ेद कपड़ों के लिये झगड़ने से क्‍या लाभ होगा, कि त्रिदण्‍डी या कर्मत्‍यागरूप संन्‍यास कर्मयोग- मार्ग में नहीं है इसलिये वह मार्ग स्‍मृतिविरुद्ध या त्‍याज्‍य है। भगवान् ने तो निरभिमानपूर्वक बुद्धि से यही कहा है;-

एकं सांख्‍यं च योगं च य: पश्‍यति स पक्ष्‍यति।

अर्थात्, जिसने यह जान लिया कि सांख्‍य और कर्मयोग मोक्षदृष्टि से दो नहीं, एक ही हैं, वह पण्डित है[7]। और महाभारत में भी कहा है, कि एकान्तिक अर्थात् भागतधर्म सांख्‍यधर्म की बराबरी का है-‘’ सांख्‍ययोगेन तुल्‍यो हि धर्म एकान्‍तसेवित:’’[8]। सारांश, सब स्‍वार्थ का परार्थ में लय कर अपनी अपनी योग्‍यता के अनुसार व्‍यवहार में प्राप्‍त सभी कर्म सब प्राणियों के हितार्थ मरण पर्यन्‍त निष्‍काम बुद्धि से केवल कर्त्‍तव्‍य समझ कर करते जाना ही सच्‍चा वैराग्‍य था ‘नित्‍यसंन्‍यास’ है[9]; इसी कारण कर्मयोगमार्ग में स्‍वरूप से कर्म का संन्‍यास कर भिक्षा कभी भी नहीं मांगते। परन्‍तु बहारी आचरण से देखने में यदि इस प्रकार भेद दिखे, तो भी संन्‍यास और त्‍याग के सच्‍चे तत्‍व कर्मयोगमार्ग में भी कायम ही रहते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी. 5. 3
  2. 18. 2
  3. शां. 320. 42
  4. मनु. 12. 20
  5. गी. 18. 2
  6. गी. 6. 2
  7. गी. 5. 5
  8. शां. 348. 74
  9. 5. 3

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प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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