गीता रहस्य -तिलक पृ. 340

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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ग्यारहवाँ प्रकरण

यहाँ बतला दिया कि भगवद्गीता में प्रवृत्तिप्रधान भागवतधर्म या कर्मयोग ही प्रतिपाद्य है, और इस कर्मयोग में तथा मीमांसकों के कर्मकाण्‍ड में कौन सा भेद है। अब तात्विक दृष्टि से इस बात का थोड़ा सा विचार करते हैं कि गीता के कर्मयोग में और ज्ञानकाण्‍ड को ले कर स्‍मृतिकारों की वर्णन की हुई आश्रम-व्‍यवस्‍था में क्‍या भेद है। यह भेद बहुत ही सूक्ष्‍म है और सच पूछो तो इसके विषय में बाद करने का कारण भी नहीं है। दोनों पक्ष मानते हैं, कि ज्ञान-प्राप्ति होने तक चित्‍त की शुद्धि के लिये प्रथम दो आश्रमों ( ब्रह्मचारी और गृहस्‍थ ) के कृत्‍य सभी को करना चाहिये। मतभेद सिर्फ इतना ही है, कि पूर्ण ज्ञान हो चुकने पर कर्म करे या सन्‍यास ले ले। सम्‍भव है कुछ लोग यह समझें, कि सदा ऐसे ज्ञानी पुरुष किसी समाज में थोड़े ही रहेंगे, इसलिये इन थोड़े से ज्ञानी पुरुषों का कर्म करना या न करना एक ही सा है, इस विषय में विशेष चर्चा करने की आवश्‍यकता नहीं। परन्‍तु यह समझ ठीक नहीं; क्‍योंकि ज्ञानी पुरुष के वर्ताव को और लोग प्रमाण मानते हैं और अपने अन्तिम साघ्‍य के अनुसार ही मनुष्‍य पहले से आदत डालता है, इसलिए लौकिक दृष्टि से यह प्रश्न अत्‍यंत महत्‍व को जाता है कि ‘’ज्ञानी पुरुष को क्‍या करना चाहिये ?’’

स्‍मृतिग्रन्‍थों में कहा तो है, कि ज्ञानी पुरुष अन्‍त में संन्‍यास ले ले; परन्‍तु ऊपर कह आये हैं, कि स्‍मार्त मार्ग के अनुसार ही इस नियम के कुछ अपवाद भी हैं। उदाहरण लिजिये; बृहदारणयकोपनिषद में याज्ञवल्‍क्‍य ने जनक को ब्रह्मज्ञान का बहुत उपदेश किया है; पर उन्‍होंने जनक से यह कहीं नहीं कहा.कि ‘’अब तुम राजपाट छोड़ देते है वे इसलिये उसे छोड़ देते है, कि संसार हमें रूचता नहीं है-न कायमन्‍ते[1]। इससे बृहदारण्‍यकोपनिषद का यह अभिप्राय व्‍यक्‍त होता है, कि ज्ञान के पश्‍चात संन्‍यास का लेना और न लेना अपनी अपनी खुशी की अर्थात् वैकल्पिक बात है, ब्रह्मज्ञान और संन्‍यास का कुछ नित्‍य सम्‍बन्‍ध नहीं, और वेदान्‍तसूत्र में बृहदारण्‍यकोपनिषद के इस वचन का अर्थ वैसा ही लगाया गया है[2]। शंकराचार्य का निश्चिति सिद्धान्‍त है, कि ज्ञानोत्‍तर कर्म-संन्‍यास किये बिना मोक्ष मिल नहीं सकता, इसलिये अपने भाष्‍य में उन्‍होंने इस मत की पुष्टि में सब उपनिषदों की अनुकूलता दिखलाने का प्रयत्‍न किया है। तथापि शंकराचार्य ने भी स्‍वीकार किया है कि जनक आदि के समान ज्ञानोत्‍तर भी अधिकारानुसार जीवन भर कर्म करते रहने से कोई क्षति नहीं है[3]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वृ.4.4.22
  2. वेस. 3. 4. 15
  3. वेस. शांभा. 3. 3. 32; और गी. शांभा. 2. 11 एवं 3. 20 देखो

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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