गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
ग्यारहवाँ प्रकरण
ज्ञान और काम्य कर्म के बीच यदि विरोध हो, तो भी ज्ञान और निष्काम-कर्म में कोई विरोध नहीं; इसी लिये गीता का कथन है, कि निष्काम-बुद्धि से सब कर्म सर्वदा करते रहो, उन्हें कभी मत छोड़ो अब इन चारों मतेां की तुलना करने से देख पड़ेगा, कि ज्ञान होने के पहले कर्म की आवश्यकता सभी को मान्य है; परन्तु उनपनिषदों और गीता का कथन है, कि ऐसी स्थिति में श्रद्धा से किये हुए कर्म का फल स्वर्ग के सिवा दूसरा कुछ नहीं होता। इसके आगे, आर्थात् ज्ञान-प्राप्ति हो चुकने पर कर्म किये जावें या नहीं–इस विषय में, उपनिषत्कर्त्ताओं में भी मतभेद है। कई एक उपनिषत्कर्त्ताओं का मत है कि ज्ञान से समस्त काम्य बुद्धि का न्हास हो चुकने पर जो मनुष्य मोक्ष का अधिकारी हो गया है, उसे केवल स्वर्ग की प्राप्ति करा देनेवाले काम्य कर्म करने का कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता; परन्तु ईशावास्य आदि दूसरे कई एक उपनिषदों में प्रतिपादन किया गया है, कि मृत्युलोक के व्यवहारों को जारी रखने के लिये कर्म करना ही चाहिये। यह प्रगट है, कि उपनिषदों में वर्णित इन दो मार्गों में से, दूसरा मार्ग ही गीता में प्रतिपादित है[1]। परन्तु यद्यपि यह कहें कि मोक्ष के अधिकारी ज्ञानी पुरुष को निष्काम बुद्धि से लोकसंग्रहार्थ सब व्यवहार करना चाहिये; तथापि इस स्थान पर यह प्रश्न आप ही होता है, कि जिन[2] यज्ञ-याग आदि कर्मों का फल स्वर्ग-प्राप्ति के सिवा दूसरा कुछ नहीं, उन्हें वह करें ही क्यों? इसी से अठारहवें अध्याय के आरम्भ में इसी प्रश्न को उठा कर भगवान् ने स्पष्ट निर्णय कर दिया है, कि ‘’यज्ञ, दान, तप’’ आदि कर्म सदैव चित्तशुद्धि- कारक हैं अर्थात् निष्काम-बुद्धि उपजाने और बढ़ाने वाले हैं; इसलिये ‘इन्हे भी’ ( एतान्यपि ) अन्य निष्काम कर्मों के सम्मान लोकसंग्रहार्थ ज्ञानी पुरुष को फलाशा और संग छोड़कर सदा करते रहना चाहिये[3]। परमेश्वर को अर्पण कर इस प्रकार सब कर्म निष्काम-बुद्धि से करते रहने से, व्यापक अर्थ में, यही एक बड़ा भारी यज्ञ हो जाता है; और फिर इस यज्ञ के लिये जो कर्म किया जाता है वह बन्धक नहीं होता[4], किन्तु सभी काम निष्काम-बुद्धि से करने के कारण यज्ञ से जो स्वर्ग-प्राप्ति रूप बन्धक फल मिलने वाला था वह भी नहीं मिलता और ये सब काम मोक्ष के आड़े आ नहीं सकते सारांश मीमांसकों का कर्म-काण्ड यदि गीता में क़ायम रखा गया हो, तो वह इस रीति से रखा गया है कि उससे स्वर्ग का आना जाना छूट जाता है और सभी कर्म निष्काम बुद्धि से करने के कारण अन्त में मोक्ष-प्राप्ति हुए बिना नहीं रहती। ध्यान रखना चाहिये, कि मीमांसको के कर्ममार्ग और गीता के कर्मयोग में यही महत्व का भेद है-दोनों एक नहीं हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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