गीता रहस्य -तिलक पृ. 337

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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ग्यारहवाँ प्रकरण

मनुस्‍मृति में भी संन्‍यास आश्रम के बदले सब वर्णो के लिये वैदिक कर्मयोग ही विकल्‍प से विहित माना गया है[1]। यह कहीं नहीं लिखा है कि भागवतधर्म केवल क्षत्रियों के ही लिये है; प्रत्‍युत उसकी महत्‍ता यह कह कर गाई है, कि स्‍त्री और शूद्र आदि सब लोगों को वह सुलभ है[2]महाभारत में ऐसी कथाएँ हैं कि तुलाधार (वैश्‍य) और व्‍याध (शिकारी) इसी धर्म का आचरण करते थे, और उन्‍हीं ने ब्राह्मणों को भी उसका उपदेश किया था[3]। निष्‍काम कर्मयोग का आचरण करने वाले प्रमुख पुरुषों के जो उदाहरण भागवत-धर्मग्रन्‍थों में दिये जाते हैं, वे केवल जनक-श्रीकृष्‍ण आदि क्षत्रियों के ही नहीं, हैं, प्रत्‍युत उनमें वसिष्‍ठ, जैगीषव्‍य और व्‍यास प्रभृति ज्ञानी ब्राह्मणों का भी समावेश रहता है। य‍ह न भूलना चाहिये, कि यद्यपि गीता में कर्ममार्ग ही प्रतिपाद्य है , तो भी निरे कर्म अर्थात् दानरहित कर्म करने के मार्ग को गीता मोक्षप्रद नहीं मानती। ज्ञानरहित कर्म करने के भी दो भेद हैं। एक तो दम्‍भ से या आसुरी बुद्धि से कर्म करना, और दूसरा श्रद्धा से। इनमें दम्‍भ से या आसुरी मार्ग को गीता ने[4] और मीमांसकों ने भी गर्ह्य तथा नरकप्रद माना है, एवं ऋग्‍वेद में भी, अनेक स्‍थलों पर श्रद्धा की महता वर्णित है[5]

परन्‍तु दूसरे मार्ग के विषय में, अर्थात् ज्ञान-व्‍यतिरिक्‍त किन्‍तु शास्‍त्रों पर श्रद्धा रख कर कर्म करने के विषय में, मीमांसकों का कहना है कि परमेश्‍वर के स्‍वरुप का यथार्थ ज्ञान न हो तो भी शास्‍त्रों पर विश्रास रख कर केवल श्रद्धापूर्वक यज्ञ-याग आ‍दि कर्म मरण पर्यन्‍त करते जाने से अन्‍त में मोक्ष ही मिलता है। पिछले प्रकरण में कह चुके हैं, कि कर्मकाण्‍ड रुप से मीमांसकों का यह मार्ग बहुत प्राचिन काल से चला आ रहा है। वेद-संहिता और ब्राह्मणों में संन्‍यास आश्रम आवश्‍यक कहीं नहीं कहा गया है, उलटा जैमिनि ने वेदों का यही स्‍पष्‍ट मत बतलाया है, कि गृहस्‍थाश्रम में रहने से ही मोक्ष मिलता है[6] और उनका यह कथन कुछ निराधार भी नहीं है। क्‍योंकि कर्मकाण्‍ड के इस प्राचीन मार्ग को गौण मानने का आरम्‍भ उपनिषदों में ही पहले पहल देखा जाता है। यद्यपि उपनिषद वैदिक हैं, तथापि उनके विषय-प्रतिपादन से प्रगट होता है, कि वे संहिता और ब्राह्मणों के पीछे के हैं। इसके मानी यह नहीं, कि इसके पहले परमेश्‍वर का ज्ञान हुआ ही न था। हां उपनिषद काल में ही यह मत पहले पहल अमल में अवश्‍य आने लगा कि मोक्ष पाने के लिये ज्ञान के पश्‍चात वैराग्‍य से कर्मसंन्‍यास करना चाहिये; और इसके पश्‍चात संहिता एवं ब्राह्मणों में वर्णित कर्मकाण्‍ड को गौणात्‍व आ गया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मनु. 6. 86-96
  2. गी. 9.32
  3. शां. 261वन 215
  4. 16. 16 और 17. 28
  5. ऋ.10. 151; 9.113. 2 और 2. 12. 5
  6. वेसू. 3. 4. 17-20 देखो

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प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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