गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
ग्यारहवाँ प्रकरण
इसलिये इसमें कोई आश्चर्य नहीं, कि इसका उपास्य देव भी श्रीकृष्ण या विष्णु है; परंतु ‘स्मार्त’ शब्द का धात्वर्थ ‘स्मृत्युक्त’-केवल इतना ही-होनेके कारण यह नहीं कहा जा सकता कि स्मार्त-धर्म का उपास्य शिव ही होना चाहिये। क्योंकि मनु आदि प्राचीन धर्मग्रन्थों मे यह नियम कहीं नही है, कि एक शिव की ही उपासना करनी चाहिये। इसकि विपरीत, विष्णु का ही वर्णन आधिक पाया जाता है और कुछ स्थलों पर तो गणपति प्रभृति को भी उपास्य बतलाया है। इसके सिवा शिव और विष्णु दोनों देवता वैदिक हैं आर्थात् वेद में ही इनका वर्णन किया गया है, इसलिये इनमें से एक को ही स्मृति कहना ठीक नहीं है। श्रीशंकराचार्य स्मार्त्त मत के पुरस्कर्ता कहे जाते है; पर शांकर मठ में उपास्य देवता शारदा है और शंकर भाष्य में जहाँ जहाँ प्रतिमा-पूजन का प्रसंग छिड़ा है; वहाँ वहाँ आचार्य ने शिवलिंग का निर्देश न कर शालग्राम अर्थात् विष्णु-प्रतिमा का ही उल्लेख किया है[1]। इसी प्रकार कहा जता है, कि पञ्चदेव-पूजा का प्रचार भी पहले शंकराचार्य ने ही किया था। इन सब बातों का विचारकरने से यही सिद्ध होता है कि पहले पहल स्मृार्त और भागवत पन्थों में ‘शिवभक्ति’ या ‘विष्णुभक्ति’ जैसे उपास्य मे दो के कोई झगड़े नही थे; किन्तु जिनकी दृष्टि से स्मृति-ग्रन्थों में स्पष्ट रीति से वर्णित आश्रम-व्यवस्था के अनुसार तरुण अवस्था में यथाशास्त्र संसार के सब कार्य करके, बुढ़ापे में एकाएक कर्म छोड़ चतुर्थाश्रम या संन्यास लेना अन्तिम साध्य था वे ही स्मृति कहलाते थे और जो लोग भगवान् के उपदेशानुसार यह समझते थे कि ज्ञान एवं उज्ज्वल भगवदभक्ति के साथ ही मरण पर्यनत गृहस्थाश्रम के ही कार्य निष्काम बुद्धि से करते रहना चाहिये उन्हें भागवत कहते थे। इन दोनों शब्दों के मूल अर्थ यही हैं; और, इसी से ये दोनों शब्द, सांख्य और योग अथवा सन्यांस और कर्मयोग के क्रमश: समानार्थक होते हैं। भगवान के अवतारकृत्य से कहो, या ज्ञानयुक्त गार्हस्थ्य-धर्म के महत्व पर ध्यान देकर कहो, संन्यास-आश्रम लुप्त हो गया था; और कलि वर्ज्य प्रकरण में शामिल कर दिया गया था; आर्थात् कलियुग में जिन बातों को शास्त्र ने निषिद्ध माना है उनमें संन्यास की गिनती की गई थी[2]। फिर जैन और बौद्ध धर्म के प्रवर्तकों ने कापिल संख्य के मत को स्वीकार कर इस मत का विशेष प्रचार किया कि, संसार का त्याग कर संन्यास के लिये बिना मोक्ष नहीं मिलता। इतिहास में प्रसिद्ध है, कि बुद्ध ने स्वयं तरुण अवस्था में ही राज-पाट स्त्री और बाल बच्चों को छोड़कर संन्यास दीक्षा ले ली थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वेपू. शांभा. 1. 2. 7; 1. 3. 14 और 4. 1. 3; छां. शांभा. 8. 1. 1
- ↑ निर्णयसिन्धु के तृतीय परिच्छेद में कालिवर्ज्य-प्रकरण देखो। इसमें ‘’अग्निहोत्रं गवालम्भं संन्यासं पलपैतृकम्। देवराच्च सुतोत्पति: कलौ पञ्च विवर्जयेत्’’ और ‘’संन्यासश्च न कर्त्तव्यो ब्राह्मणेन विजानता’’ इत्यादि स्मृतिवचन हैं। अर्थ:-अग्निहोत्र, गोवध, सन्यास, भाद्र में मांसभक्षण और नियोग कलियुग में ये पांचों निषिद्ध हैं। इनमें से संन्यास का निषिद्ध भी शंकराचार्य ने पीछे से निकाल डाला।
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