गीता रहस्य -तिलक पृ. 329

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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ग्यारहवाँ प्रकरण

इसी से मैं ‘लोकसंग्रह करूँगा’ इस अभिमान या फलाशा की बुद्धि को मन में न रखकर लोकसंग्रह भी केवल कर्त्‍तव्‍य-बुद्धि से ही करना पड़ता है। इसलिये गीता में यह नहीं कहा कि ‘लोकसंग्रहार्थ’ अर्थात् लोकसंग्रह फल पाने के लिये कर्म करना चाहिये; किन्‍तु यह कहा है कि लोकसंग्रह की ओर दृष्टि दे कर ( संपश्‍यन ) तुझे कर्म करना चाहिये-‘लोकसंग्रहमेवापि संपश्‍यन्’[1]। इस प्रकार गीता में जो ज़रा लंबी चोड़ी शब्‍द योजना की गई है, उसका रहस्‍य भी वही है जिसका उल्‍लेख ऊपर किया जा चुका है। लोकसंग्रह सचमुच महत्त्व पूर्ण कर्त्‍तव्‍य है; पर यह न भूलना चाहिाये कि इसके पहले श्‍लोक[2] में अनासक्‍त बुद्धि से कर्म करने का भगवान् ने अर्जुन को जो उपदेश दिया है, वह लोकसंग्रह के लिये भी उपयुक्‍त है। ज्ञान और कर्म का जो विरोध है, वह ज्ञान और काम्‍य कर्मों का है; ज्ञान और निष्‍काम कर्म में आध्‍यात्मिक दृष्टि से भी कुछ विरोध नहीं है। कर्म अपरिहार्य है और लोकसंग्रह की दृष्टि से उनकी आवश्‍यकता भी बहुत है, इसलिये ज्ञानी पुरुष को जीवनपर्यन्‍त निस्‍संग बुद्धि से यथाधिकार चातुर्वणर्य के कर्म करते ही रहना चाहिये। यदि यही बात शास्‍त्रीय युक्ति प्रयुक्तियों से सिद्ध है और गीता का भी यही इत्‍यर्थ है, तो मन में यह शंका सहज ही होती है, कि वैदिक धर्म के स्‍मृतिग्रन्‍थों में वर्णित चार आश्रमों में से संन्‍यास आश्रम की क्‍या दशा होगी?

मनु आदि सब स्‍मृतियों में ब्रह्मचारी, गृहस्‍थ, वानप्रस्‍थ और संन्‍यासी-ये चार आश्रम बतला कर कहा है कि अध्‍ययन, यज्ञ-याग, दान या चातुर्वणर्य-धर्म के अनुसार प्राप्‍त अन्‍य कर्मों के शास्‍त्रोक्‍त आरचरण द्वारा पहले तीन आश्रमों में धीरे-धीरे चित्‍त की शुद्धि हो जानी चाहिये और अंत में समस्‍त कर्मों को स्‍वरूपत: छोड़ देना चाहिये तथा संन्‍यास ले कर मोक्ष प्राप्‍त करना चाहिये[3]। इससे सब स्‍मृति कारों का यह अभिप्राय प्रगट होता है, कि यज्ञ-याग और दान प्रभृति कर्म गृहस्‍थाश्रम में य‍द्यपि विहित हैं, तथापि वे सब चित्‍त की शुद्धि के लिये हैं अर्थात् उनका यही उपदेश है कि विषयासक्ति या स्‍वार्थपरायण-बुद्धि छूटकर परोपकार-बुद्धि इतनी बढ़ जावे कि सब प्राणियों में एक ही आत्‍मा को पहँचानने की शक्ति प्राप्‍त हो जाय; और, यह स्थिति प्राप्‍त होने पर, मोक्ष की प्राप्ति के लिये अन्‍त में सब कर्मों का स्‍वरूपत: त्‍याग कर संन्‍यासाश्रम ही लेना चाहिये। श्रीशंकराचार्य ने कलियुग में जिस संन्‍यास धर्म की स्‍थापना की, वह मार्ग यही है; और स्‍मार्तमार्ग वाले कालिदास ने भी रघुवंश के आरम्‍भ में-

शैशवेभ्‍यस्‍तविद्यानां यौवने विषयैषिणाम्।
वार्धके मुनिवृत्‍तीनाम् योगेनान्‍ते तनुत्‍यजाम्।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी. 3. 20
  2. गी. 3. 19
  3. मनु.6. 1 और 33-37 देखो

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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