गीता रहस्य -तिलक पृ. 322

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

Prev.png
ग्यारहवाँ प्रकरण

इसलिये कोश में जो ‘संग्रह’ शब्‍द के जमा करना, इकट्ठा करना, रखना, पालना, नियमन करना प्रभृति अर्थ हैं, उन सब को यथासम्‍भव ग्रहण करना पड़ता है; और ऐसा करने से ‘लोगों का संग्रह करना’ यानी यह अर्थ होता है कि ‘’उन्‍हें एकत्र सम्‍बद्ध कर इस रीति से उनका पालन-पोषण और नियमन करें, कि उनकी परस्‍पर अनुकूलता से उत्‍पन्‍न होने वाला। सामर्थ्‍य उनमें आ जावे, एवं उसके द्वारा उनकी सुस्थिति को स्थिर रख कर उन्‍हें श्रेय: प्राप्ति के मार्ग में लगा दे।’’ ‘राष्‍ट्र का संग्रह’ शब्‍द इसी अर्थ में मनुस्‍मृति[1] में आया है और शांकरभाष्‍य में इस शब्‍द की व्‍याख्‍या यों है- ‘’लोकसंग्रह=लोक- स्‍योन्‍मार्गप्रवृत्तिनिवारणम्।’’ इससे देख पड़ेगा कि संग्रह शब्‍द का जो हम ऐसा अर्थ करते हैं- अज्ञान से मनमाना बर्ताव करने वाले लोगों को ज्ञानवान् बना कर सुस्थिति में एकत्र रखना और आत्‍मोन्‍नति के मार्ग में लगाना–वह अपूर्व या निराधार नहीं है। यह संग्रह शब्‍द का अर्थ हुआ; परन्‍तु यहाँ यह भी बतलाना चाहिये, कि ‘लोकसंग्रह’ में ‘ लोक’ शब्‍द केवल मनुष्‍यवाची नहीं है।

य‍द्यपि यह सच है, कि जगत् के अन्‍य प्राणियों की अपेक्षा मनुष्‍य श्रेष्‍ठ है और इसी से मानव जाति के ही कल्‍याण का प्रधानता से ‘लोकसंग्रह’ शब्‍द में समावेश होता है; तथापि भगवान् की ही ऐसी इच्‍छा है कि भूलोक, सत्‍यलोक, पितृलोक और देवलोक प्रभृति जो अनेक लोक अर्थात् जगत् भगवान् ने बनाये हैं, उनका भी भली-भाँति धारण-पोषण हो और वे सभी अच्‍छी रीति से चलते रहें; इसलिये कहना पड़ता है कि इतना सब व्‍यापक अर्थ ‘लोकसंग्रह’ पद से यहाँ विवक्षित है कि मनुष्‍यलोक के साथ ही इन सब लोकों के साथ ही इन सब लोकों का व्‍यवहार भी सुस्थ्‍िाति से चले ( लोकनां संग्रह: )। जनक के किये हुए अपने कर्त्तव्‍य के वर्णन में, जो ऊपर लिखा जा चुका है, देव और पितरों का भी उल्‍लेख है, एवं भगवद्गीता के तीसरे अध्‍याय में तथा महाभारत के नारायणीयोपाख्‍यान में जिस यज्ञचक्र का वर्णन है उसमें भी कहा है, कि देवलोक ओर मनुष्‍यलोक दोनों ही के धारण-पोषण के लिये ब्रह्मदेव ने यज्ञ उत्‍पन्‍न किया[2]। इससे स्‍पष्‍ट होता है कि भगवद्गीता [3] में ‘लोकसंग्रह पद से इतना अर्थ विवक्षित है कि-अकेले मनुष्‍यलोक का ही नहीं, किन्‍तु देवलोक आदि सब लोकों का भी उचित धारण–पोषण होवे और वे परस्‍पर एक दूसरे का श्रेय सम्‍पादन करें। सारी सृष्टि का पालन-पोषण करके लोकसंग्रह करने का जो यह अधिकार भगवान् का है, वही ज्ञानी पुरुष का अपने ज्ञान के कारण प्राप्‍त हुआ करता है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 7. 114
  2. गी. 3.10-12
  3. गी. र. 42

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः