गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
ग्यारहवाँ प्रकरण
इस प्रश्न का उत्तर गीता के तीसरे अध्याय में दिया गया है[1]। गीता को यह मत मान्य है कि, ज्ञानी पुरुष को ज्ञान के पश्चात स्वयं अपना कोई कर्तव्य नहीं रह जाता। परंतु इसके आगे बढ़ कर गीता का यह भी कथन है कि कोई भी क्यों न हो, वह कर्म से छूट्टी नहीं पा सकता। कई लोगों को ये दोनों सिद्धान्त परस्पर-विरोधी जान पड़ते हैं, कि ज्ञानी पुरुष का कर्तव्य नहीं रहता और कर्म नहीं छूट सकते; परंतु गीता की बात ऐसी नहीं है। गीता ने उनका यों मेल मिलाया है:- जब कर्म अपरिहार्य हैं, तब ज्ञान-प्राप्ति के बाद भी ज्ञानी पुरुष को कर्म करना ही चाहिये। चूंकि उसको स्वयं अपने लिये कोई कर्तव्य नहीं रह जाता, इसलिये अब उसे अपने सब कर्म निष्कामबुद्धि से करने ही उचित हैं। सारांश, तीसरे अध्याय के 17 वें श्लोक के “तस्य कार्ये न विद्यते” वाक्य में, ‘कार्ये न विद्यते’ इन शब्दों की अपेक्षा, ‘तस्य’(अर्थात् उस ज्ञानी पुरुष के लिये) शब्द अधिक महत्व का है; और इसका भावार्थ यह है कि ‘स्वयं उसको’ अपने लिये कुछ प्राप्त नहीं करना चाहिये। आगे 19वें श्लोक में, कारण-बोधक ‘तस्मात’ पद का प्रयोग कर, अर्जुन को इसी अर्थ का उपदेश दिया है “तस्मादसक्त: सततं कार्ये कर्म समाचार”[2]- इसी से तू शास्त्र से प्राप्त अपने कर्तव्य को, आसक्ति न रख कर, करता जा; कर्म का त्याग मत कर। तीसरे अध्याय के 17 से 19 तक, तीन श्लोकों से जो कार्य-कारण भाव व्यक्त होता है उस पर, और अध्याय के समूचे प्रकरण के सन्दर्भ पर, ठीक ठीक ध्यान देने से देख पड़ता कि, संन्यास मार्गीयों के कथनानुसार ‘तस्य कार्ये न विद्यते’ इसे स्वतंत्र सिद्धान्त मान लेना उचित नहीं है। इसके लिये उत्तम प्रमाण आगे दिये हुए उदाहरण हैं। ज्ञान प्राप्ति के पश्चात कोई कर्तव्य न रहने पर भी शास्त्र से प्राप्त समस्त व्यवहार करने पड़ते है’– इस सिद्धान्त की पुष्टि में भगवान् कहते हैं- न मे पार्थाऽस्ति कर्त्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन। “हे पार्थ। ‘मेरा’ इस त्रिभुवन में कुछ भी कर्तव्य (बाकी़) नही है, अथवा कोई अप्राप्त वस्तु पाने की (वासना) रही नहीं है; तथापि में कर्म ही करता हूं” [3]। “न मे कर्तव्यमस्ति” (मुझे कर्तव्य नहीं रहा है) ये शब्द पूर्वोक्त श्लोक के “तस्य कार्य न विद्यते” (उसको कुछ कर्तव्य नहीं रहता) इन्हीं शब्दों को लक्ष्य करके कहे गये है। इससे सिद्ध होता है, कि चार पांच श्लोकों का भावार्थ यही है:- “ज्ञान से कर्तव्य के शेष न रहने पर भी, किंबहुना इसी कारण से शास्त्रत: प्राप्त कर समस्त व्यवहार अनासक्त बुद्धि से करना ही चाहिये।“ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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