गीता रहस्य -तिलक पृ. 310

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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ग्यारहवाँ प्रकरण


पहले लिख चुके हैं, कि इसी प्रकार नारायणीय धर्म में भी इन दोनों पन्‍थों का पृथक पृथक स्‍वतंत्र रीति से, एवं सृष्टि के आरम्‍भ से प्रचलित होने का वर्णन किया गया है। परन्‍तु स्‍मरण रहे, कि महाभारत में प्रसंगनुसार इन दोनों पन्‍थों का वर्णन पाया जाता है, इसलिये प्रवृतिमार्ग के साथ ही निवृतिमार्ग के समर्थक वचन भी उसी महाभारत में ही पाये जाते हैं। गीता की संन्‍यासमार्गीय टीकाओं में, निवृतिमार्ग के इन वचनों को ही मुख्‍य समझ कर, ऐसा प्रतिपादन करने का प्रयत्‍न किया गया है, मानों इसके सिवा और दूसरा पन्‍थ ही नहीं है और यदि हो भी तो वह गौण है अर्थात् संन्‍यासमार्ग केवल अंग है। परन्‍तु यह प्रतिपादन साम्‍प्रदायिक आग्रह का है और इसी से गीता का अर्थ सरल और स्‍पष्‍ट रहने पर भी, आज कल वह बहुतों को दुर्बोध हो गया है। गीता के ‘’ लोकेऽस्मिान्‍द्वधा निष्‍टा ‘’[1] इस श्लोक की बराबरी का ही ‘’ द्वाविमावथ पन्‍थानौ ‘’ यह श्लोक है; इससे प्रगट होता है कि इस स्‍थान पर दो समान बलवाले मार्ग बतलाने का हेतु है। परन्‍तु, इस स्‍पष्‍ट अर्थ की ओर अथवा पूर्वापर सन्‍दर्भ की ओर ध्‍यान न दे कर, कुछ लोग इसी श्लोक में यह दिखलाने का यत्‍न किया करते हैं कि दोनों मार्गों के बदले एक ही मार्ग प्रतिपाद्य है।

इस प्रकार यह प्रगट हो गया कि कर्म-संन्‍यास (सांख्‍य) और निष्‍काम कर्म (योग), दोनों वैदिक धर्म के स्‍वतंत्र मार्ग हैं और उनके विषय में गीता का यह निश्‍चित सिद्धांत है कि वे वैकल्पिक नहीं हैं; किन्‍तु 'संन्‍यास की अपेक्षा कर्मयोग की योग्‍यता विशेष है।' अब कर्मयोग के सम्‍बन्‍ध में, गीता में आगे कहा है, कि जिस संसार में हम रहते हैं वह संसार और उसमें हमारा क्षण भर जीवित रहना भी जब कर्म ही है, तब कर्म छोड़ कर जावें कहांॽ और, यदि इस संसार में अर्थात कर्मभूमि में ही रहना हो, तो कर्म छूटेंगे ही कैसेॽ हम प्रत्‍यक्ष देखते हैं, कि जब तक देह है, तब तक भूख और प्‍यास जैसे विकार नहीं छूटते हैं[2] और उनके निवारणार्थ भिक्षा मांगना जैसा लज्जित कर्म करने के लिये भी संन्‍यासमार्ग के अनुसार यदि स्‍वतंत्रता है, तो अनासक्‍तबुद्धि से अन्‍य व्‍यावहारिक शास्‍त्रोक्‍त कर्म करने के लिये ही प्रत्‍यवाय कौन सा हैॽ यदि कोई इस डर से अन्‍य कर्मों का त्‍याग करता हो, कि कर्म से कर्मपाश में फंस कर ब्रह्ममानन्‍द से वंचित रहेंगे अथवा ब्रह्ममत्‍मैक्‍य रूप अद्वैतबुद्धि विचलित हो जायगी, तो कहना चाहिये कि अब तक उसका मनोनिग्रह कच्‍चा है; और मनोनिग्रह के कच्‍चे रहते हुए किया हुआ कर्मत्‍याग गीता के अनुसार मोह का अर्थात तामस अथवा मिथ्‍याचार है[3]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी. 3. 3
  2. गी. 5. 8, 9
  3. गी. 18. 7; 3. 6

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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