गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
ग्यारहवाँ प्रकरण
इस प्रकार यह प्रगट हो गया कि कर्म-संन्यास (सांख्य) और निष्काम कर्म (योग), दोनों वैदिक धर्म के स्वतंत्र मार्ग हैं और उनके विषय में गीता का यह निश्चित सिद्धांत है कि वे वैकल्पिक नहीं हैं; किन्तु 'संन्यास की अपेक्षा कर्मयोग की योग्यता विशेष है।' अब कर्मयोग के सम्बन्ध में, गीता में आगे कहा है, कि जिस संसार में हम रहते हैं वह संसार और उसमें हमारा क्षण भर जीवित रहना भी जब कर्म ही है, तब कर्म छोड़ कर जावें कहांॽ और, यदि इस संसार में अर्थात कर्मभूमि में ही रहना हो, तो कर्म छूटेंगे ही कैसेॽ हम प्रत्यक्ष देखते हैं, कि जब तक देह है, तब तक भूख और प्यास जैसे विकार नहीं छूटते हैं[2] और उनके निवारणार्थ भिक्षा मांगना जैसा लज्जित कर्म करने के लिये भी संन्यासमार्ग के अनुसार यदि स्वतंत्रता है, तो अनासक्तबुद्धि से अन्य व्यावहारिक शास्त्रोक्त कर्म करने के लिये ही प्रत्यवाय कौन सा हैॽ यदि कोई इस डर से अन्य कर्मों का त्याग करता हो, कि कर्म से कर्मपाश में फंस कर ब्रह्ममानन्द से वंचित रहेंगे अथवा ब्रह्ममत्मैक्य रूप अद्वैतबुद्धि विचलित हो जायगी, तो कहना चाहिये कि अब तक उसका मनोनिग्रह कच्चा है; और मनोनिग्रह के कच्चे रहते हुए किया हुआ कर्मत्याग गीता के अनुसार मोह का अर्थात तामस अथवा मिथ्याचार है[3]। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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