गीता रहस्य -तिलक पृ. 307

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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ग्यारहवाँ प्रकरण

" दोनों निष्‍ठाओं को छोड़ कर " इन शब्‍दों से प्रगट होता है कि यह तीसरी निष्‍ठा, पहली दो निष्‍ठाओं में से, किसी भी निष्‍ठा का अंग नहीं–प्रत्‍युत स्‍वतन्‍त्र रीति से वर्णित है। वेदान्‍तसूत्र[1] में भी जनक की इस तीसरी निष्‍ठा का उल्‍लेख किया गया है और भगवद्गीता मे जनक की इसी तीसरी निष्‍ठा का–इसी में भक्ति, का नया योग करके–वर्णन किया गया है। परन्‍तु गीता का तो यह सिद्धांत है, कि मीमासंकों का केवल कर्ममार्ग अर्थात ज्ञान-विरहित कर्ममार्ग मोक्षदायक नहीं है, वह केवल स्‍वर्गप्रद है[2]; इसलिये जो मार्ग मोक्षप्रद नहीं, उसे ‘निष्‍ठा’ नाम ही नहीं दिया जा सकता। क्‍योंकि, यह व्‍याख्‍या सभी को स्‍वीकृत है, कि जिससे अन्‍त में मोक्ष मिले उसी मार्ग को ‘निष्‍ठा‘ कहना चाहिये। अतएव, सब मतों का सामान्‍य विवेचन करते समय, यद्यपि जनक ने तीन निष्‍ठांए बतलाई हैं, तथापि मीमासंकों का केवल ( अर्थात ज्ञानविरहित ) कर्ममार्ग ‘निष्‍ठा’ में से पृथक कर सिद्धांत पक्ष में स्थिर होने वाली दो निष्‍ठाएं ही गीता के तीसरे अध्‍याय के आरम्‍भ में कही गई हैं[3]

केवल ज्ञान ( सांख्‍य ) और ज्ञानयुक्‍त् निष्‍काम-कर्म ( योग ) यही दो निष्‍ठाएं है; और, सिद्धांतपक्षीय इन दोनों निष्‍ठाओं में से, दूसरी ( अर्थात, जनक के कथनानुसार तीसरी ) निष्‍ठा के समर्थनार्थ यह प्राचीन उदाहरण दिया गया है कि ‘’ कर्मणौव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादय: ‘’ –जनक प्रभृति ने इस प्रकार कर्म करके ही सिद्धि पाई है। जनक आदिक क्षत्रियों की बात छोड़ दें, तो यह सर्वश्रृत है ही कि व्‍यास ने विचित्रवीर्य के वंश की रक्षा के लिये धृतराष्‍ट्र और पाण्‍डु, दो क्षेत्रज पुत्र निर्माण किये थे और तीन वर्ष तक निरन्‍तर परिश्रम करके संसार के उद्धार के निमित्त उन्‍होनें महाभारत भी लिखा है; एवं कलियुग में स्‍मार्त अर्थात संन्‍यासमार्ग के प्रवर्तक श्रीशंकराचार्य ने भी अपने अलौकिक ज्ञान तथा उद्योग से धर्म-संस्‍थापना का कार्य किया था। कहाँ तक कहें, जब स्‍वंय ब्रह्मदेव कर्म करने के लिये प्रवृत हुए, तभी सृष्टि का आरम्‍भ हुआ है; ब्रह्मदेव से ही मरीचि प्रभृति सात मानस पुत्रों ने उत्‍पन्‍न हो कर संन्‍यास न ले, सृष्टि क्रम को जारी रखने के लिये मरण पर्यत प्रवृतिमार्ग को ही अंगीकार किया; और सनत्‍कुमार प्रभृति दसरे सात मानस पुत्र जन्‍म से ही विरक्‍त अर्थात् निवृतिपंथी हुए- इस कथा का उल्‍लेख महाभारत में वर्णित नारयणीधर्म–निरूपपणा में है[4]। ब्रह्मज्ञानी पुरुषों ने और ब्रह्मदेव ने भी, कर्म करते रहने के ही इस प्रवृतिमार्ग को क्‍यों अंगीकार किया?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 3. 4. 32-35
  2. गी. 2. 42-44; 9. 21
  3. गी. 3. 3
  4. मभा. शां. 339 और 340

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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