गीता रहस्य -तिलक पृ. 304

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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ग्यारहवाँ प्रकरण

इसी से कहना पड़ता है कि साम्‍प्रदायिक आग्रह की यह कोरी दलील सर्वथा त्‍याज्‍य और अनुचित है, तथा गीता में ज्ञानयुक्‍त कर्मयोग का ही उपेदश किया गया है। अब तक यह बतलाया गया कि सिद्धावस्‍था के व्‍यवहार के विषय में भी, कर्मत्‍याग (सांख्‍य) और कर्मयोग (योग) ये दोनों मार्ग न केवल हमारे ही देश में, वरन् अन्‍य देशों में भी प्राचीन समय से प्रचलित पाये जाते हैं। अनंतर, इस विषय में, गीताशास्‍त्र के दो मुख्‍य सिद्धांत बतलाये गये:-

  1. ये दोनों मार्ग स्‍वतन्‍त्र अर्थात मोक्ष की दृष्टि से परस्‍पर निरपेक्ष और तुल्‍य बल वाले हैं, एक दूसरे का अंग नहीं; और
  2. इनमें कर्मयोग ही अधिक प्रशस्‍त है। और, इन दोनों सिद्धान्‍तों के अत्‍यंत स्‍पष्‍ट होते हुए भी टीकाकारों ने इसका विपर्यास किस प्रकार और क्‍यों किया, इसी बात को दिखलाने के लिये यह सारी प्रस्‍तावना लिखनी पड़ी। अ‍ब, गीता में दिये हुए उन कारणों का निरूपण किया जायगा, जो प्रस्‍तुत प्रकरण की इस मुख्‍य बात को सिद्ध करते हैं, कि सिद्धावस्‍था में भी कर्मत्‍याग की अपेक्षा आमरणन्‍त कर्म करते रहने का मार्ग अर्थात कर्मयोग ही अधिक श्रेयस्‍कर है। इनमें से कुछ बातों का खुलासा तो सुख-दु:ख का, इसलिये वहाँ इस विषय की पूरी चर्चा नहीं की जा सकी। अतएव, इस विषय की चर्चा के लिये ही यह स्‍वतंत्र प्रकरण लिखा गया है।

वैदिक धर्म के दो भाग हैं– कर्मकाण्‍ड और ज्ञानकाण्‍ड। पिछले प्रकरण में उनके भेद बतला दिये गये हैं। कर्मकाण्‍ड में अर्थात ब्राह्मण आदि श्रौत ग्रंन्‍थों में और अंशत: उपनिषदों में भी ऐसे स्‍पष्‍ट वचन हैं, कि प्रत्‍येक गृहस्‍थ– फिर चाहे वह ब्राह्मण हो या क्षत्रिय– अग्निहोत्र करके यथाधिकार ज्‍योतिष्‍टोम आदिक यज्ञ-याग करे और विवाह करके वंश बढ़ावे। उदाहरणार्थ, “एतद्वै जरामर्य सत्रं यदग्निहोत्रम” – इस अग्निरूप सत्र को मरण पर्यंत जारी रखना चाहिये[1]; “प्रजातंतु मा व्‍यवच्‍छेत्‍सी:”– वंश के धागे को टूटने न दो [2]; अथवा “ईशावास्‍यामिदं सर्वम”– संसार में जो कुछ है, उसे परमेश्‍वर में अधिष्ठित करे अर्थात ऐसा समझे, कि मेरा कुछ नहीं उसी का है, और इस निष्‍काम बुद्धि से–

कुर्वन्‍नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्‍छतं समा:।
एवं त्‍वयि नान्‍यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्‍यते नरे।।

“कर्म करते रह कर ही सौ वर्ष अर्थात आयुष्‍य की मर्यादा के अन्‍त तक जीने की इच्‍छा रखे, एवं ऐसी ईशावास्‍य बुद्धि से कर्म करेगा तो उन कर्मों का तुझे (पुरुष को) लेप (बन्‍धन) नहीं लगेगा; इसके अतिरिक्‍त (लेप अथवा बन्‍धन से बचने के लिये) दूसरा मार्ग नहीं है[3]; इत्‍यादि वचनों को देखो। परन्‍तु जब हम कर्मकाण्‍ड से ज्ञानकाण्‍ड में जाते हैं, तब हमारे वैदिक ग्रन्‍थों में ही अनेक विरुद्ध पक्षीय वचन भी मिलते हैं, जैसे “ब्रह्मविदान्पोति परम्‌”[4]- ब्रह्मज्ञान से मोक्ष प्राप्त होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श.ब्रा. 12.4.1.1
  2. तै.उ. 1.11.1
  3. ईश. 1 और 2
  4. तै. 2.1.1

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प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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