गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
ग्यारहवाँ प्रकरण
इसी से कहना पड़ता है कि साम्प्रदायिक आग्रह की यह कोरी दलील सर्वथा त्याज्य और अनुचित है, तथा गीता में ज्ञानयुक्त कर्मयोग का ही उपेदश किया गया है। अब तक यह बतलाया गया कि सिद्धावस्था के व्यवहार के विषय में भी, कर्मत्याग (सांख्य) और कर्मयोग (योग) ये दोनों मार्ग न केवल हमारे ही देश में, वरन् अन्य देशों में भी प्राचीन समय से प्रचलित पाये जाते हैं। अनंतर, इस विषय में, गीताशास्त्र के दो मुख्य सिद्धांत बतलाये गये:-
वैदिक धर्म के दो भाग हैं– कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड। पिछले प्रकरण में उनके भेद बतला दिये गये हैं। कर्मकाण्ड में अर्थात ब्राह्मण आदि श्रौत ग्रंन्थों में और अंशत: उपनिषदों में भी ऐसे स्पष्ट वचन हैं, कि प्रत्येक गृहस्थ– फिर चाहे वह ब्राह्मण हो या क्षत्रिय– अग्निहोत्र करके यथाधिकार ज्योतिष्टोम आदिक यज्ञ-याग करे और विवाह करके वंश बढ़ावे। उदाहरणार्थ, “एतद्वै जरामर्य सत्रं यदग्निहोत्रम” – इस अग्निरूप सत्र को मरण पर्यंत जारी रखना चाहिये[1]; “प्रजातंतु मा व्यवच्छेत्सी:”– वंश के धागे को टूटने न दो [2]; अथवा “ईशावास्यामिदं सर्वम”– संसार में जो कुछ है, उसे परमेश्वर में अधिष्ठित करे अर्थात ऐसा समझे, कि मेरा कुछ नहीं उसी का है, और इस निष्काम बुद्धि से– कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समा:। “कर्म करते रह कर ही सौ वर्ष अर्थात आयुष्य की मर्यादा के अन्त तक जीने की इच्छा रखे, एवं ऐसी ईशावास्य बुद्धि से कर्म करेगा तो उन कर्मों का तुझे (पुरुष को) लेप (बन्धन) नहीं लगेगा; इसके अतिरिक्त (लेप अथवा बन्धन से बचने के लिये) दूसरा मार्ग नहीं है[3]; इत्यादि वचनों को देखो। परन्तु जब हम कर्मकाण्ड से ज्ञानकाण्ड में जाते हैं, तब हमारे वैदिक ग्रन्थों में ही अनेक विरुद्ध पक्षीय वचन भी मिलते हैं, जैसे “ब्रह्मविदान्पोति परम्”[4]- ब्रह्मज्ञान से मोक्ष प्राप्त होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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