गीता रहस्य -तिलक पृ. 303

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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ग्यारहवाँ प्रकरण

भास कवि ने गीता के इस सिद्धान्‍त का वर्णन अपने नाटक मे इस प्रकार किया है–

प्राज्ञस्‍य मूर्खस्‍य च कार्ययेागे। समत्‍वमभ्‍येति तनुर्न बुद्धि:।।

“ज्ञानी और मूर्ख मनुष्‍यों के कर्म करने में शरीर तो एक सा रहता है, परंतु बुद्धि में भिन्‍नता रहती है”[1]। कुछ फुटकल संन्‍यास मार्ग वालों का इस पर यह और कथन है, कि “गीता में अर्जुन को कर्म करने का उपदेश तो दिया गया है; परन्‍तु भगवान ने यह उपदेश इस बात पर ध्‍यान दे दिया है, कि अज्ञानी अर्जुन को, चित्त-शुद्धि के लिये, कर्म करने का ही अधिकार था। सिद्धावस्‍था में, भगवान के मत से भी कर्मत्‍याग ही श्रेष्‍ठ है” इस युक्तिवाद का सरल भावार्थ यही देख पड़ता है, कि यदि भगवान यह कह देते हैं कि “अर्जुन! तू अज्ञानी है” तो वह उसी प्रकार पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति के लिये आग्रह करता, जिस प्रकार कि कठोपनिषद में नचिकेता ने किया था; और फिर तो उसे पूर्ण ज्ञान बतलाना ही पड़ता; एवं यदि वैसा पूर्ण ज्ञान उसे बतलाया जाता तो वह युद्ध छोड़कर संन्‍यास ले लेता और तब तो भगवान का भारती-युद्ध संबंधी सारा उदेश ही विफल हो जाता– इसी भय से अपने अत्‍यन्‍त प्रिय भक्‍त को धोखा देने का निन्‍द्य कर्म मढ़ने के लिये, प्रवृत हो गये, उनके साथ किसी भी प्रकार का वाद न करना ही अच्‍छा है।

परन्‍तु सामान्‍य लोग इन भ्रामक युक्तियों में कही फंस न जावे इसलिये इतना ही कह देते हैं कि श्रीकृष्‍ण को अर्जुन से स्‍पष्‍ट शब्‍दों में यह कह देने के लिये, डरने का कोई कारण न था, कि “तू अज्ञानी है, इसलिये कर्म कर;” और इतने पर भी, यदि अर्जुन कुछ गड़बड़ करता, तो उसे अज्ञानी रख कर दी उससे प्रकृति-धर्म के अनुसार युद्ध कराने का सामर्थ्‍य श्रीकृष्‍णा में था ही[2]। परन्‍तु ऐसा न कर, बारबार ‘ज्ञान’ और ‘विज्ञान’ बतला कर ही[3], पन्‍द्रहवें अध्‍याय के अन्‍त में भगवान ने अर्जुन से कहा है कि “इस शास्‍त्र को समझ लेने से मनुष्‍य ज्ञाता और कृतार्थ हो जाता है”[4]। इस प्रकार भगवान ने उसे पूर्ण ज्ञानी कर, उसकी इच्‍छा से ही उससे युद्ध करवाया है[5]। इससे भगवान का यह अभिप्राय स्‍पष्‍ट रीति से सिद्ध होता है कि ज्ञाता पुरुष को, ज्ञान के पश्‍चात भी, निष्‍काम कर्म करते ही रहना चाहिये और यही सर्वोत्तम पक्ष है। इसके अतिरिक्‍त, यदि एक बार मान भी लिया जाय कि अर्जुन अज्ञानी था, तथापि उसको किये हुए उपदेश के समर्थन में जिन जनक प्रभृति प्राचीन कर्मयोगियों का और आगे भगवान ने स्‍वयं अपना उदाहरण दिया है, उन सभी को अज्ञानी नहीं कह सकते।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अविमार. 5. 5
  2. गी. 18.59 और 61 देखो
  3. गी. 7.2; 9.1; 10.1; 13. 2; 14.1
  4. गी. 15. 20
  5. गी. 18. 63

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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