गीता रहस्य -तिलक पृ. 300

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

Prev.png
ग्यारहवाँ प्रकरण

अठारहवें अध्‍याय के उपसंहार में भी भगवान ने फिर कहा है, कि “नियत कर्मों का संन्‍यास करना उचित नहीं है, आसक्ति विरहित सब काम सदा करना चाहिये, यही मेरा निश्‍चित और उत्तम मत है”[1]। इससे निर्विवाद सिद्ध होता है कि गीता में संन्‍यास मार्ग की अपेक्षा कर्मयोग को ही श्रेष्‍ठता दी गई है। परन्‍तु, जिनका साम्‍प्रदायिक मत है, कि संन्‍यास या भक्ति ही अन्तिम और श्रैष्‍ठ कर्तव्‍य है, कर्म तो निरा चित्तशुद्धि का साधन है– वह मुख्‍य साध्‍य या कर्तव्‍य नहीं हो सकता– उन्‍हें गीता का यह सिद्धांत कैसे पसंद होगाॽ यह नहीं कहा जा सकता कि उनके ध्‍यान में यह बात आई ही न होगी, कि गीता में संन्‍यास मार्ग की अपेक्षा कर्मयोग को स्‍पष्‍ट रीति से अधिक महत्‍व दिया गया है। परन्‍तु यदि यह बात मान ली जाती, तो यह प्रगट ही है, कि उनके सम्‍प्रदाय की योग्‍यता कम हो जाती। इसी से, पांचवें अध्‍याय के आरम्‍भ में, अर्जुन के प्रश्‍न और भगवान के उत्‍तर सरल, सयुक्ति और स्‍पष्‍टार्थक रहने पर भी, साम्‍प्रदायिक टीकाकार इस चक्‍कर में पड़ गये हैं कि इनका कैसा क्‍या अर्थ किया जाय। पहली अड़चन यह थी, कि ‘संन्‍यास और कर्मयोग इन दोनों मार्गों में श्रेष्‍ठ कौन हैॽ यह प्रश्‍न ही दोनों मार्गों को स्‍वतन्‍त्र माने बिना उपस्थित हो नहीं सकता।

क्‍योंकि, टीकाकारों के कथनानुसार, कर्मयोग यदि ज्ञान को सिर्फ पूर्वांग हो, तो यह बात स्‍वंय सिद्ध है कि पूर्वांग गौण है और ज्ञान अथवा संन्‍यास ही श्रेष्‍ठ है। फिर प्रश्‍न करने के लिये गुंजाइश ही कहाँ रहीॽ अच्‍छा; यदि प्रश्‍न को उचित मान ही लें, तो यह स्‍वीकार करना पड़ता है, कि ये दोनों मार्ग स्‍वतन्‍त्र हैं; और तब तो यह स्‍वीकृति इस कथन का विरोध करेगी, कि केवल हमारा सम्‍प्रदाय ही मोक्ष का मार्ग है। इस अड़चन को दूर करने के लिये इन टीकाकारों ने पहले तो यह तुर्रा लगा दिया है कि अर्जुन का प्रश्‍न ही ठीक नहीं है; और फिर यह दिखलाने का प्रयत्‍न किया है कि भगवान के उत्‍तर का तात्‍पर्य भी वैसा ही है। परन्‍तु इतना गोलमाल करने पर भी भगवान के इस स्‍पष्‍ट उत्तर– ‘कर्मयोग की योग्‍यता अथवा श्रेष्‍ठता विशेष है’[2]– का अर्थ ठीक ठीक फिर भी लगा ही नहीं। तब अन्‍त में अपने मन का, पूर्वापर संदर्भ के‍ विरुद्ध, दूसरा यह तुर्रा लगा कर इन टीकाकारों को किसी प्रकार अपना समाधान कर लेना पड़ा, कि “कर्मयोगो विशिष्‍यते"– कर्मयोग की योग्‍यता विशेष है– यह वचन कर्मयोग की पोली प्रशंसा करने के लिये यानी अर्थवादात्‍मक है, वास्‍तव में भगवान के मत में भी संन्‍यास मार्ग ही श्रेष्‍ठ है[3]

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी. 18.6,7
  2. गी. 5. 2
  3. गी. शांभा. 5.2; 6.1, 2; 18.11 देखो

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः