गीता रहस्य -तिलक पृ. 290

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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दसवाँ प्रकरण

चाहे फिर दिवस और उत्तरायण आदि शब्‍दों से बादरायणाचार्य के कथनानुसार देवता समझिये या उनके लक्षण से प्रकाशमय मार्ग के क्रमश: बढ़ते हुए सोपान समझिये; परन्‍तु इससे इस सिद्धान्‍त में कुछ भेद नहीं होता कि यहाँ देवयान और पितृयाण शब्‍दों का रूढ़ार्थ मार्गवाचक है। परन्‍तु क्‍या देवयान और क्‍या पितृयाण, दोनों मार्ग शास्‍त्रोक्‍त अर्थात पुण्यकर्म करने वाले को ही प्राप्‍त हुआ करते हैं क्‍योंकि पितृयाण यद्यपि देवयान से नीचे की श्रेणी का मार्ग है, तथापि वह भी चन्‍द्रलोक को अर्थात एक प्रकार के स्‍वर्गलोक ही को पहुँचने वाला मार्ग है। इसलिये प्रगट है, कि वहाँ सुख भोगने की पात्रता होने के लिये इस लोक में कुछ न कुछ शास्‍त्रोक्‍त पुण्यकर्म अवश्‍य ही करना पड़ता [1] है[2]। जो लोग थोड़ा भी शास्‍त्रोक्‍त पुण्यकर्म न करके संसार में अपना समस्‍त जीवन पापाचरण में बिता देते हैं, वे इन दोनों में से किसी भी मार्ग से नहीं जा सकते। इनके विषय में उपनिषदों में कहा गया है कि लोग मरने पर एकदम पशु-पक्षी आदि तिर्यक्‌-योनि में जन्‍म लेते हैं और बारंबार यमलोक अर्थात नरक में जाते हैं। इसी को ‘तीसरा’ मार्ग कहते हैं[3]; और भगवद्गीता में भी कहा गया है कि निपट पापी अर्थात आसुरी पुरुषों को यही नित्‍य-गति प्राप्ति होती है[4]

ऊपर इसका विवेचन किया जो चुका है कि मरने पर मनुष्‍य को उसके कर्मानुरूप वैदिक धर्म के प्राचीन परम्‍परानुसार तीन प्रकार की गति किस क्रम से प्राप्‍त होती है। इनमें से केवल देवयान मार्ग ही मोक्ष-दायक है; परन्‍तु मोक्ष क्रम क्रम से अर्थात अर्चिरादि ( एक के बाद एक, ऐसे कई सोपानों ) से जाते जाते अन्‍त में मिलता है; इसलिये इस मार्ग को ‘क्रममुक्ति’ कहते हैं, और देहपात होने के अनन्‍तर अर्थात मृत्‍यु के अन्‍न्‍तर ब्रह्मलोक में जाने से वहाँ अन्‍त में मुक्ति मिलती है इसीलिये इसे ‘विदेह-मुक्ति’’भी कहते हैं। परन्‍तु इन सब बातों के अतिरिक्‍त शुद्ध अध्‍यात्‍मशास्‍त्र का यह भी कथन है कि जिसके मन में ब्रह्म और आत्‍मा के एकत्‍व का पूर्ण साक्षात्‍कार नित्‍य जागृत है, उसे ब्रह्मप्राप्ति के लिये कहीं दूसरी जगह और क्‍यों जाना पड़ेगा। अथवा उसे मृत्‍यु-काल की भी बाट क्‍यों जोहनी पड़ेगी। यह बात सच है कि उपासना के लिये स्‍वीकृत किये गये सूर्यादि प्रतीकों की अर्थात सगुणब्रह्म की उपासना से जो ब्रह्मज्ञान होता है वह पहले पहल कुछ अपूर्ण रहता है, क्‍योंकि इससे मन में सूर्यलोक या ब्रह्मलोक इत्‍यादि की कल्‍पनाएं उत्‍पन्‍न हो जाती हैं और वे ही मरण समय में भी मन में न्‍यूनाधिक परिमाण से बनी रहती हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी.र.38
  2. गी. 9.10,21
  3. छां 5. 10. 8; कठ. 2.6,7
  4. गी. 16.19-21; 9.12; वेसू. 3.1.12,13; निरूक्‍त 14.9

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प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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