गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
दसवाँ प्रकरण
ज्ञान प्रकाशमय है और परब्रह्म “ज्योतिषां ज्योति:”[1] तेजों का तेज है जिसके कारण, देहपात होने के अनन्तर, ज्ञानी पुरुषों के मार्ग का प्रकाशमय होना ही उचित है; और गीता में इन दोनों मार्गों को ‘शुक्र’ और ‘कृष्णा‘ इसीलिये कहा है कि उनका भी अर्थ प्रकाशमय और अन्धकारमय है। गीता में उत्तरायण के बाद के सोपान का वर्णन नहीं है। परन्तु यास्क के निरूक्त में उदगयन के बाद देवलोक, सूर्य, वैधुत और मानस पुरुष का वर्णन है[2]; और उपनिषदों में देवयान के विषय में जो वर्णन है, उनकी एकवाक्यता करके वेदान्तसूत्र, में यह क्रम दिया है कि उत्तरायण के बाद संवत्सर, वायुलोक, सूर्य, चन्द्र, विधुत, वरुणलोक, इन्द्रलोक, प्रजापतिलोक और अन्त में ब्रह्मलोक है[3]। देवयान और पितृयाण मार्गों के सोपानों या मुकामों का वर्णन हो चुका है। परन्तु इनमें जो दिवस, शुक्रपक्ष, उत्तरायण इत्यादि का वर्णन है उनका सामान्य अर्थ कालवाचक होता है जिसके कारण प्रश्न सहज ही उपस्थित होता है, कि क्या देवयान और पितृयान मार्गों का काल से कुछ संबंध है या पहले कभी था कि नहीं। यद्यपि दिवस, रात्रि, शुक्रपक्ष इत्यादि शब्दों का अर्थ कालवाचक है; तथापि अग्नि, ज्वाला, वायुलोक, विद्युत आदि जो अन्य सोपान है उनका अर्थ कालवाचक नहीं हो सकता; और यदि यह कहा जाय कि ज्ञानी पुरुष को, दिन अथवा रात के समय मरने पर, भिन्न भिन्न गति मिलती है, तब तो ज्ञान का कुछ महत्व ही नहीं रह जाता। इसलिये अग्नि, दिवस, उत्तरायण इत्यादि सभी शब्दो को कालवाचक न मान कर वेदान्तसूत्र में यह सिद्धांत किया गया है, कि ये शब्द इनके अभिमानी देवताओं के लिये कल्पित किये गये हैं जो ज्ञानी और कर्मकांडी पुरुषों के आत्मा को भिन्न भिन्न मार्गों से ब्रह्मलोक और चंद्रलोक में ले जाते हैं[4]। परन्तु इसमें सन्देह है कि भगवद्गीता को यह मत मान्य है या नहीं; क्योंकि उत्तरायण के बाद के उन सोपानों का गीता में वर्णन नहीं है कि जो कालवाचक नहीं। इतना ही नहीं; बल्कि इन मार्गों का बतलाने के पहले भगवान ने काल का स्पष्ट उल्लेख इस प्रकार किया है कि मैं तुझे वह काल बतलाता हूँ कि “जिस काल में मरने पर कर्मयोगी लौट कर आता है या नहीं आता है”[5]; और महाभारत में भी यह वर्णन पाया जाता है कि जब भीष्म पितामह शरशय्या में पड़े थे तब व शरीर त्याग करने के लिये उत्तरायण की अर्थातसूर्य के उत्तर की ओर मुड़ने की प्रतीक्षा कर रहे थे[6]। इससे विदित होता है कि दिवस, शुक्रपक्ष और उत्तरायण काल ही मृत्यु होने के लिये कभी न कभी प्रशस्त माने जाते थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गी. 13. 17
- ↑ निरूक्त. 14.9
- ↑ बृह. 5,10; 6.2.15; छां. 5.10; कौषी. 1.3; वेसू. 4.3.1-6
- ↑ वेसू. 4.2. 19-21; 4.3.4
- ↑ गी. 8. 23
- ↑ भी. 120; अनु.167
संबंधित लेख
प्रकरण | नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज