गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
दसवाँ प्रकरण
ज्ञानकांड अर्थात उपनिषदों का साफ यही कहना है कि जब तक ब्रह्मात्मैक्य हो कर कर्म के विषय में विरक्ति न हो जाय तब तक नाम रूपात्मक माया से या जन्म-मरण के चक्कर से छुटकारा नहीं मिल सकता; और श्रौतस्मार्त-धर्म को देखो तो यही मालूम पड़ता है कि प्रत्येक मनुष्य का गार्हस्थ्य धर्म कर्म-प्रधान या व्यापक अर्थ में यज्ञमय है। इसके प्रति रिक्त वेदों का भी कथन है कि यर्थाथ किये गये कर्म बन्धन नहीं होते और यज्ञ से ही स्वर्गप्राप्ति होती है। स्वर्ग की चर्चा छोड़ दी जाय: तो भी हम देखते हैं कि ब्रह्मदेव ही ने यह नियम बना दिया है कि बिना देवतागण भी सन्तुष्ट नहीं होते। ऐसी अवस्था में यज्ञ अर्थात कर्म किये बिना मनुष्य की भलाई कैसे होगी? इस लोक के क्रम के विषय में मनुस्मृति, महाभारत, उपनिषद तथा गीता में भी कहा है कि:- अन्ग्रो प्रास्ताहुति: सम्यगादित्यपुपतिष्ठते। “यज्ञ में हवन किये गये सब द्रव्य अग्नि द्वारा सूर्य से पर्जम्य और पर्जन्य से अन्न तथा अन्न से प्रजा उत्पन्न होती है”[1]। और जबकि ये यज्ञ कर्म द्वारा ही होते हैं, तब कर्म को छोड़ देने से काम कैसे चलेगा? यज्ञमय कर्मों को छोड़ देने से संसार का चक्र बन्द हो जायगा और किसी को खाने को भी नही मिलेगा। इस पर भागवतधर्म तथा गीताशास्त्र का उत्तर यह है कि यज्ञ-याग आदि वैदिक कर्मों को या अन्य किसी भी स्मार्त तथा व्यावहारिक यज्ञमय कर्मों को छोड़ देने को उपदेश हम नहीं करते; हम तो तुम्हारे ही समान यह भी कहने को तैयार है कि जो यज्ञ-चक्र पूर्वकाल से बराबर चलता आया है उसके बंद हो जाने से संसार का नाश हो जायगा; इसलिये हमारा यही सिद्धांत है कि इस कर्ममय यज्ञ को कभी भी नही छोड़ना चाहिये [2]। परन्तु ज्ञानकाण्ड में अर्थात उपनिषदों ही में स्पष्टरूप से कहा गया है कि ज्ञान और वैराग्य से कर्मक्षय हुए बिना मोक्ष नहीं मिल सकता, इसलिये इन दोनों सिद्धांतों का मेल करके हमारा अन्तिम कथन यह है कि सब कर्मों को ज्ञान से अर्थात फलाशा छोड़कर निष्काम या विरक्त बुद्धि से करते रहना चाहिये[3]। यदि तुम स्वर्गफल की काम्य बुद्धि मन में रख कर ज्योतिष्टोम आदि यज्ञ-याग करोगे तो, वेद में कहे अनुसार, स्वर्ग-फल तुम्हें निस्सन्देह मिलेगा; क्योंकि वेदाज्ञा कभी भी झूठ नहीं हो सकती। परन्तु स्वर्ग-फल नित्य अर्थात हमेशा टिकनेवाला नहीं है, इसलिये कहा गया है [4] – |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मनु. 3.76; मभा. शां. 262.11; मैत्र्यु. 6.37; गी. 3.14
- ↑ मभा. शां. 340; गी. 3.16
- ↑ गी. 3. 17.19
- ↑ बृ. 4.4.6; वेसू. 3.1.8; मभा. वन. 260.39
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