गीता रहस्य -तिलक पृ. 284

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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दसवाँ प्रकरण

ये सब कर्म एक प्रकार के यज्ञ ही माने जाते हैं और इन्‍हें करने का कारण तैत्तिरीय संहिता में यह बतलाया गया है, कि जन्‍म से ही ब्राह्मण अपने ऊपर तीन प्रकार के ऋण ले आता है – एक ऋषि का, दूसरा देवताओं का और तीसरा पितरों का। इनमें से ऋषि का ऋण वेदाभ्‍यास से, देवताओं का यज्ञ से और पितरों का पुत्रोत्‍पति से चुकाना चाहिये; नहीं तो उसकी अच्‍छी गति न होगी (तै. सं.6.3. 10 5)[1]। महाभारत[2] में एक कथा है कि जरत्‍कारू न ऐसा आचरण नहीं किया किन्‍तु वह विवाह के पहले ही उग्र तपश्चर्या करने लगा, सब संतान-क्षय के कारण उसके यायावर नामक पितर आकाश में लटकते हुए उसे देख पड़े, और फिर उनकी आज्ञा से उसने अपना विवाह किया। यह भी कुछ नियम नहीं है कि इन सब कर्मों या यज्ञ को केवल ब्राह्मण ही करें। वैदिक यज्ञों को छोड़ अन्‍य सब कर्म यथाधिकार स्त्रियों और शुद्रों के लिये भी विहित है इसलिये स्‍मृतियों में कही गई चातुर्वणर्य व्‍यवस्‍था के अनुसार जो कर्म किये जायं वे सब यज्ञ का यही व्‍यापक अर्थ विवक्षित है। मनु ने कहा कि जो जिसे लिये विहित है, वही उसके लिये तप है[3]; और महाभारत में भी कहा है कि :-

आरंभयज्ञा: क्षत्राश्‍च हविर्यज्ञा विश: स्‍मृता:।
परिचारयज्ञा: शूद्राश्च जपयज्ञा द्विजातय:।।

“आरम्‍भ (उद्योग), हवि, सेवा और जप ये चार यज्ञ क्षत्रिय, वैश्‍य, शूद्र, और ब्राह्मण इन चार वर्णों के लिये यथानुक्रम विहित हैं[4]। सारांश, इस सृष्टि के सब मनुष्‍यों को यज्ञ ही के लिये ब्रह्मदेव उत्‍पन्‍न किया है[5]। फलत: चातुर्वणर्य आदि सब शास्‍त्रोक्‍त कर्म एक प्रकार के यज्ञ ही हैं और यदि प्रत्‍येक मनुष्‍य अपने अपने अधिकार के अनुसार इन शास्‍त्रोक्‍त कर्मों या यज्ञों को– धंधे, व्‍यवसाय या कर्तव्‍य व्‍यवहार को–न करे तो समूचे समाज की हानि होगी और संभव है कि अंत में उसका नाश भी हो जावे। इसलिये ऐसे व्‍यापक अर्थ से सिद्ध होता है कि लोकसंग्रह के लिये यज्ञ की सदैव आवश्‍यकता होती है। अब यह प्रश्‍न उठता है कि यदि वेद और चातुर्वणर्य आदि स्‍मार्त-व्‍यवस्‍था के अनुसार गृहस्‍थों के लिये वही यज्ञप्रधान-वृत्ति विहित मानी गई है कि जो केवल कर्ममय है, तो क्‍या इन सांसारिक कर्मों को धर्मशास्‍त्र के अनुसार यथा विधि ( अर्थात निति से और धर्म के आज्ञानुसार ) करते रहने से ही कोई मनुष्‍य जन्‍म मरण के चक्‍कर से मुक्‍त हो जायगा। और यदि कहा जाय कि वह मुक्‍त हो जाता है, तो फिर ज्ञान की बड़ाई और योग्‍यता ही क्‍या रही?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. तैतिरीय संहिता का वचन यह है:- “जायमानो वै ब्राह्मणस्त्रिभिर्ऋणवा जायते ब्रह्मचयेंणषिभ्‍यो यज्ञेन देवेभ्‍य: प्रजया पितृभ्‍य एष वा अनृणो य: पुत्री यज्‍वा ब्रह्मचारिवा‍सीति”।
  2. आ. 13
  3. 11.236
  4. मभा. शां. 237.12
  5. मभा. अनु. 48. 3; और गीता 3.10; 4. 32

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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