गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
दसवाँ प्रकरण
और स्थल-स्थल पर ऐसी प्रार्थना की गयी है, कि " हे देव! हमें सन्तति और समृद्धि दो” “हमें शतायु करो” “हमें, हमारे लड़कों-बच्चों को और हमारे वीर पुरुषों को तथा हमारे जानवरों को न मारो”[1]। ये यज्ञ-याग तीनों वेदों में विहित हैं इसलिये इस मार्ग का पुराना नाम ‘त्रयी धर्म’ है; और ब्राह्मणग्रंथों में इन यज्ञों की विधियों का विस्तृत वर्णन किया गया है। परन्तु भिन्न भिन्न ब्राह्मणग्रंथों में यज्ञ करने की भिन्न भिन्न विधियां हैं इससे आगे शंका होने लगी कि कौन सी विधि ग्राह्य है; तब इन परस्पर-विरुद्ध वाक्यों की एकवाक्यता करने के लिये जैमिनि ने अर्थ-निर्णायक नियमों का संग्रह किया। जैमिनि के इन नियमों को ही मीमांसासूत्र या पूर्व-मीमांसा कहते हैं, और इसी कारण से प्राचीन कर्मकाण्ड को मीमांसक मार्ग नाम मिला तथा हमने भी इसी नाम का ग्रंन्थ में कई बार उपयोग किया है क्योंकि आजकल यही प्रचलित हो गया है। परन्तु स्मरण रहे कि यद्यपि “मीमांसा”शब्द ही आगे चल कर प्रचलित हो गया, तथापि यज्ञ-याग का यह मार्ग बहुत प्राचीन काल से चलता आया है। यही कारण है कि गीता में ‘मिमांसा’ शब्द कहीं भी नहीं आया है किन्तु इसके बदले “त्रयीधर्म”[2]या ‘त्रयीविद्या’ नाम आये हैं। यज्ञ-याग आदि श्रौतकर्म-प्रतिपादक ब्राह्मणग्रंथों के बाद आरण्यक और उपनिषद बने। इनमें यह प्रतिपादन किया गया कि यज्ञ-याग आदि कर्म गौण हैं और ब्रह्मज्ञान ही श्रेष्ठ है इसलिये इनके धर्म को ‘ज्ञानकाण्ड’ कहते हैं। परन्तु भिन्न भिन्न उपनिषदों में भिन्न भिन्न विचार हैं इसलिये उनकी एकवाक्यता करने की आवश्यकता हुई, और इस कार्य को बादरायणाचार्य ने अपने वेदान्तसूत्र में किया। इस ग्रन्थ को ब्रह्मसूत्र, शरीरसूत्र या उत्तरमीमांसा कहते हैं। इस प्रकार पूर्वमीमांसा तथा उत्तरमीमांसा कर्म से कर्मकाण्ड तथा ज्ञानकाण्ड संबंधी प्रधान ग्रन्थ हैं। वस्तुत: ये दोनों ग्रन्थ मूल में मीमांसा ही के हैं अर्थात वैदिक वचनों के अर्थ की चर्चा करने के लिये ही बनाये गये हैं। तथापि आज कल कर्मकाण्ड प्रतिपादकों को केवल, ‘मीमांसक’ और ज्ञानकाण्ड प्रतिपादकों को ‘वेदान्ती’ कहते हैं। कर्मकाण्डवालों का, अर्थात मीमांसकों का, कहना है कि श्रौतधर्म में चातुर्मास्य, ज्योतिष्टोम प्रभृति यज्ञ-याग आदि कर्म ही प्रधान है; और जो इन्हें करेगा उसे ही वेदों के आज्ञानुसार मोक्ष प्राप्त होगा। इन यज्ञ-याग आदि कर्मों को कोई भी छोड़ नही सकता। यदि छोड़ देगा तो समझना चाहिये कि वह श्रौत-धर्म से वंच्चित हो गया; क्योंकि वैदिक यज्ञ की उत्पत्ति सृष्टि के साथ ही हुई है और यह एक अनादि काल से चलता आया है, कि मनुष्य यज्ञ करके देवताओं को तृप्त करे, तथा मनुष्य की पर्जन्य आदि सब आवश्यकताओं को देवगण पूरा करें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ये मंत्र अनेक स्थलो पर पाये जाते हैं, परन्तु उन सब को न देकर यहाँ केवल एक ही मन्त्र बतलाना बस होगा, कि जो बहुत प्रचलित है। वह यह है “मा नस्तोके तनये मा न आयौ मा नो गोषु मा नो अश्वेषु रीरिष:। वीरान्मा ना रुद्र भामितो वधीर्हविष्मतन्त: सदमित्त्वा हवामहे” ( ऋ. 1.114. 8 )।
- ↑ गी. 9. 20, 21
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